________________ मतरकन्ध सूत्रका प्रतिपाल समत्वायोग यह आत्मा अनादि काल से सुख प्राप्ति के लिए अनथक पराक्रम करता चला आ रहा है | परन्तु फिर भी इसे सुख नहीं मिल पा रहा, यदि कुछ देर के लिए सुख मिलता भी है तो वह शीघ्र ही दुःख में बदल जाता है। इसका मूल कारण है - मोह जब तक आत्मा मोह से लिप्त रहता है, तब तक उसे शाश्वत सुख की प्राप्ति नही होती। इसीलिए आचार्य हरि भद्र सूरिजी ने लिखा है - सेयंबरो वा आसंबरा वा बुद्धोवा तहव अन्नो वा। समभावभावि अप्पा, लहइ मुक्खनस देहो।।। अर्थात चाहे कोई श्वेताम्बर हो, चाहे दिगम्बर हो, चाहे कोई बौद्ध धर्मी हो या अन्य धर्मावलम्बी हो, मैं दावे के साथ कहता हूं कि समभाव से जिसकी आत्मा भावित है, वह अवश्य ही मोक्ष प्राप्त करता हैं, इसीलिए साधक अपने इष्ट देव से प्रार्थना करते है कि हे नाथ मुझे सामर्थ्य प्रदान करें कि जिससे मैं समत्व भाव में प्रतिष्ठित हो सकू। आचार्य अमित गति की रचना इस विषय में विशेष चिन्तनीय है - उन्होंने अपने आराध्य से विनती करते हुए लिखा है - दुःखे सुखे वैरिणि बन्धवर्गे, योगे वियोगे भवने वने वा। निराकृताशेष ममत्व बुद्धेःसम मेअस्तु सदापि नाथ।। इसमें कहा गया है कि हे! नाथ दुःख हो सुख, वैरी हो या बन्धु वर्ग हो, इष्ट का वियोग हो या अनिष्ट का संयोग, महल हो या वन सर्वत्र सभी परिस्थितियों में समग्र ममत्व बुद्धि को छोड़कर मेरा मन सदैव समभाव में स्थिर रहे। मोह बुद्धि होने में, इष्ट योग और अनिष्ट का संयोग होने पर मानव मन विचलित हो जाता है। मानसिक संतुलन बिगड़ने से मानव आत्मसाक्षात्कार से वंचित रह जाता है। समत्व योग में स्थित होकर आत्म स्वरूप को प्राप्त किया जा सकता है। समत्व योग की प्राप्ति का मार्ग ही इस आगम-दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र में प्रतिपादित किया गया है। यही कारण है कि आचार्य देव पूज्य श्री आत्मा राम जी महाराज ने सर्वप्रथम इस आगम ग्रंथ पर विस्तृत हिन्दी व्याख्या लिखकर साधको का बड़ा उपकार किया है। निश्चित रूप से साधक जब मनोयोग पूर्वक इस ग्रंथ रत्न का अध्ययन चिन्तन मनन बार-बार करता है तब अवश्यमेव समत्व योग में दृढ़ता प्राप्त कर लेता है और साधक का लक्ष्य है डा. सुव्रत मुनि शास्त्री Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org