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दशमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
इस प्रकार धर्म प्रतिपादन किया है । यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन सर्वोत्कृष्ट है । इसकी शिक्षा के अनुसार जो कोई निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी संयम मार्ग में पराक्रम करता है और उसमें प्रयत्न-शील हो कर सब प्रकार के काम-विकारों से अपने चित्त को हटा देता है, संग से भार रहित हो जाता है और सब तरह के स्नेह से दूर ही रहता है वह चारित्र - शुद्ध और निर्मल हो जाता है तथा उसका चरित्र दृढ़ या परिपक्व हो जाता है । कहने का तात्पर्य इतना ही है कि आत्मा काम-विकार, राग और स्नेह से रहित हो जाता है तब उसका चरित्र दर्पण के समान निर्मल हो जाता है ।
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अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि उक्त तीनों से निवृत्ति किस प्रकार हो सकती है ? इसका समाधान सूत्रकार ने स्वयं ही कर दिया है कि निर्ग्रन्थ प्रवचन में दृढ़ विश्वास होने से सहज ही में इनसे निवृत्ति हो सकती है, क्योंकि जब किसी को निर्ग्रन्थ-प्रवचन में दृढ़ विश्वास हो जायगा तो वह आत्म-स्वरूप की खोज में लग जायगा और आत्मा को कर्म - बन्धन से विमुक्त करने के लिये तदुचित क्रियाओं में प्रयत्न-शील हो जायगा, जिसके कारण उसका आत्मा निरायास ही शुद्ध-बुद्ध-भाव को प्राप्त हो जायगा । सम्पूर्ण कथन का सारांश यह निकला कि निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर दृढ़ विश्वास करना चाहिए, जिससे राग आदि शत्रु दूर हों और अपनी आत्मा का कल्याण हो ।
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अब सूत्रकार फिर इसी से सम्बन्ध रखते हुए कहते हैं:-.
तस्स णं भगवंतस्स अणुत्तरेणं णाणेणं अणुत्तरेणं दंसणेणं अणुत्तरेणं परिनिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावे-माणस्स अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवल वरनाण- दंसणे समुपज्जेज्जा ।
तस्य नु भगवतोऽनुत्तरेण ज्ञानेनानुत्तरेण दर्शनेनानुत्तरेण परिनिर्वाणमार्गेणात्मानं भावयतोऽनन्तमनुत्तरं निर्व्याघातं निरावरणं कृत्स्नं प्रतिपूर्णं केवल-वर-ज्ञान-दर्शनं समुपपद्येत ।
पदार्थान्वयः -- तस्स णं-उस भगवंतस्स भगवान् के अणुत्तरेणं - अनुत्तर णाणेणं-ज्ञान से अणुत्तरेणं - सर्वोत्तम दंसणेणं-दर्शन से अणुत्तरेणं- श्रेष्ठ परिनिव्वाणमग्गेणं-कषायों के उपशम या क्षय मार्ग से अप्पाणं- अपनी आत्मा की भावेमाणस्स - भावना करते हुए अर्थात्
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