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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
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अपनी आत्मा को संयम मार्ग में प्रवृत्त करते हुए को अनंते - अनन्त अणुत्तरे-सर्व-प्रधान निव्वाघाए - निर्व्याघात निरावरणे - आवरण - रहित कसिणे - सम्पूर्ण पडिपुणे - प्रतिपूर्ण वर - सर्व श्रेष्ठ केवल - नाण- दंसणे - केवल - ज्ञान और केवल दर्शन की समुपज्जेज - उत्पत्ति हो जाती है ।
दशमी दशा
मूलार्थ- - उस भगवान् को अनुत्तर ज्ञान से, अनुत्तर- दर्शन से और अनुत्तर शान्ति-मार्ग से अपनी आत्मा की भावना करते हुए अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन की उत्पत्ति हो जाती है ।
टीका - इस सूत्र में निदान-रहित क्रिया का फल वर्णन किया गया है । जो उस भगवान् को मति - ज्ञानादि के अपेक्षा से श्रेष्ठ ज्ञान से, सवोत्तम दर्शन से, श्रेष्ठ चारित्र से, क्रोध आदि कषायों के विनाशक या शान्ति - कारक मार्ग से अर्थात् परिनिर्वाण - मार्ग से अपनी आत्मा में बसाता है या अपनी आत्मा की स्वयं भावना करता है अर्थात् उसको संयम मार्ग में लगाता है वह अनन्त विषय वाले या अपर्यवसित (सीमा या क्षय से रहित), अनन्त, सर्वोत्कृष्ट, करकुट्यादि के अभाव से निर्व्याघात, अज्ञानादि आवरण (आच्छादन-ढकने वाले) के अभाव से निरावरण, सकलार्थ - ग्राहक, पौर्णमासी के चन्द्रमा के समान निर्मल और दूसरे की सहायता की अपेक्षा न रखने वाले, सर्व - प्रधान केवल - ज्ञान और केवल - दर्शन की प्राप्ति कर लेता है । सारांश यह निकला कि उक्त रीति से संयम - मार्ग
प्रवृत्त हो कर आत्मा सब कर्मों का क्षय कर लेता है और उससे उक्त ज्ञान और दर्शन की प्राप्ति करता है । निदान कर्म उक्त ज्ञान और दर्शन की प्राप्ति में बाधा उपस्थित करता है, अतः उसके रहते हुए इनकी प्राप्ति नहीं हो सकती । किन्तु उससे रहित आत्मा उसी जन्म में उक्त ज्ञान और दर्शन की प्राप्ति कर लेता है ।
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सूत्र में ज्ञान - दर्शन के इतने विशेषण दिये गये हैं उसका तात्पर्य केवल इनका मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यव ज्ञानों से भेद दिखाना । यह चारों ज्ञान छद्मस्थ हैं । केवल 'ज्ञान' शब्द देने से इनका भी बोध न हो जाय, अतः इतने विशेषण देने की आवश्यकता पडी ।
साथ ही इस बात का सूत्र में दिग्दर्शन कराया गया है कि पण्डित - बल-वीर्य ही इस काम में सफल - मनोरथ हो सकता है, दूसरा नहीं ।
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