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दशमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
इसमें साथ ही संक्षेप में साधु के गुणों का भी वर्णन किया गया है। साधु अनगार, भगवन्त, ईया - समिति वाले, भाषा-समिति वाले, एषणा - समिति वाले, आदानभण्ड -मात्रनिक्षेपणा - समिति वाले, उच्चार-प्रश्रवण - श्लेष्म - सिंघाण - यल्ल - परिष्ठापन समिति वाले, मनोगुप्ति वाले, वचनगुप्ति वाले, कायगुप्ति वाले, गुप्तेन्द्रिय, गुप्त - ब्रह्मचारी, ममता-रहित, अकिञ्चन (धन धान्य रहित), कामक्रोधादि ग्रन्थि से रहित, कर्म - मार्ग का बन्ध (निरोध) करने वाले, कास्य- पात्र के समान पानी के लेप से रहित, शङ्ख की तरह कर्मों के रंग से रहित, जीव के समान अप्रतिहत - गति ( बाधा - रहित विचरण करने वाले, शुद्ध सुवर्ण के समान आत्मा की शुद्धि वाले, दर्पण की तरह निर्मल-भाव वाले, कछुवे के समान गुप्त - इन्द्रिय वाले, पुष्कर (कमल) के समान निर्लेप, आकाश के समान आश्रय-रहित, वायु के समान निरालय (घर से रहित), चन्द्रमा के समान सौम्य लेश्या वाले, सूर्य के समान दीप्त तेज वाले, समुद्र के समान गम्भीरता वाले, पक्षियों के समान बन्धन - मुक्त विहार करने वाले, मेरू के समान स्थिर, परीषहों से विचलित न होने वाले, शरद् ऋतु के जल के समान शीतल और शुद्ध स्वभाव वाले गैंडे के सींग के समान एक मुक्ति में ही ध्यान रखले वाले, भारंड पक्षी के समान अप्रमत्त हो कर चलने वाले, हाथी के समान परीषह - रूपी संग्राम में आगे होने वाले, धोरी वृषभ के समान संयम - भार को उठाने वाले, सिंह के समान दुर्जेय और कुतीर्थियों से हार न खाने वाले, शुद्ध अग्नि के समान तेज से प्रकाशित होने वाले और पृथिवी के समान सर्व स्पर्श सहन करने वाले होते हैं । इन सब गुणों से युक्त ही साधु कहलाता है । जब उनको किसी रोग की उत्पत्ति होती है, अथवा जब वे अन्य किसी कारण से अपने जीवन की समाप्ति देखते हैं तब अनशन - व्रत धारण कर लेते हैं । साथ ही इससे पहले अपने अतिचार आदि पापों की भली भांति आलोचना कर लेते हैं और उन पापों के लिये यथोचित प्रायश्चित करके ही अनशन - व्रत लेते हैं । फिर समाधि को प्राप्त होकर काल-मास में काल करके अन्यतर देव - लोक में उत्पन्न हो जाते हैं ।
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यह सब देखकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी कहते हैं कि हे आयुष्मन् ! श्रमण ! उस निदान - कर्म का यह पाप-रूप फल हुआ कि वह उसी जन्म में मोक्ष-प्राप्ति नहीं कर सकता अर्थात् सब प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःखों का अन्त करके निर्वाण -प्राप्ति नहीं कर सकता । यद्यपि यह निदान - कर्म केवल सर्व - वृत्ति चारित्र के ही उद्देश्य से किया गया था तथापि उक्त कुलों में उत्पन्न होने की इच्छा ही प्रतिबन्धक होकर मोक्ष - प्राप्ति नहीं होने देती । अतएव निदान - कर्म सर्वथा त्याज्य है ।
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