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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
एवं खलु श्रमण ! आयुष्मन् ! मया धर्मः प्रज्ञप्तः । यावत् स च पराक्रमन् दिव्य-मानुषकेषु काम-भोगेषु निर्वेदं गच्छेत्; मानुषकाः खलु काम-भोगा अधुवा अशाश्वता यावद् विप्रहेया दिव्या अपि खलु काम - भोगा अधुवा यावत्पुनरागमनीयाः । सन्ति अस्य तपोनियमादेर्यावद् वयमप्यागमिष्यति यानीमानि भवन्ति अन्त - कुलानि वा प्रान्त - कुलानि वा तुच्छ कुलानि वा दरिद्र कुलानि वा कृपण - कुलानि वा भिक्षुक कुलानि वा, एषामन्यतरस्मिन्कुले पुंस्त्वेवैष मे आत्मा पर्याये सुनिर्हृतो भविष्यति । तदेतत्साधु ।
दशमी दशा
पदार्थान्वयः–समणाउसो हे आयुष्मन् ! श्रमण ! एवं खलु इस प्रकार निश्चय से मए - मैंने धम्मे-धर्म पण्णत्ते - प्रतिपादन किया है। जाव - यावत् से य- वह निर्ग्रन्थ परक्कममाणे- धर्म में पराक्रम करता हुआ दिव्यमाणुस्सएहिं - दिव्य और मनुष्यों के काम - भोगेहिं-काम-भोगों के विषय में निव्वेयं वैराग्य भाव को गच्छेज्जा-प्राप्त करे क्योंकि माणुसगा - मनुष्यों के काम-भोगा - काम भोग खलु निश्चय से अधुवा - अनिश्चित और असासया-अनित्य हैं जाव-यावत् किसी न किसी समय विप्पजहणिज्जा - त्याज्य हैं और दिव्वावि-देवों के काम-भोगा - काम भोग खलु - निश्चय से अधुवा - अनिशचित और जाव-यावत् पुणरागमणिज्जा - बार- २ आने और जाने वाले होते हैं । यदि इमस्स - इस तवनियम-तप और नियम का विशेष फल संति- है तो वयमवि- हम भी आगमेस्साणं- आगामी काल में जाई - जो इमाइं-ये अंत - कुलाणि - नीच कुल पंत कुलाणि - अधम-कुल तुच्छ कुलाणिदरिद्र कुल किवण-कुलाणि वा - कृपण-कुल अथवा भिक्खाग-कुलाणि- भिक्षुक - कुल भवंति - हैं एसिं णं-इनमें से अण्णतरंसि - किसी एक कुलंसि - कुल में पुमत्ता - पुरुष रूप से एस- यह मे - मेरी आया- आत्मा उत्पन्न हो जावे जिससे परियाए - संयम-पर्याय में सुणीहडे भविस्सति - सुख - पूर्वक निकल सकेगी से तं साहू-यही ठीक है ।
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मूलार्थ - हे आयुष्मन् ! श्रमण ! इस प्रकार मैंने धर्म प्रतिपादन किया है । वह निर्ग्रन्थ धर्म में पराक्रम करता हुआ देव और मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों के विषय में वैराग्य प्राप्त करता है; मनुष्यों के काम-भोग अनिश्चित और अनित्य हैं, अतः किसी न किसी समय अवश्य छोड़ने
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