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दशमी दशा
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हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
समणोवासए - श्रमणोपासक भविस्सामि - बन जाऊं । अभिगत- जीवाजीवे - जीव और अजीव को जानता हुआ उवलद्ध - पुण्णपावे - पाप और पुण्य को उपलब्ध करता हुआ जाव-यावत् फासुयएसणिज्जं-अचित्त और निर्दोष असणं - अन्न पाणं - पानी खाइमं - खाद्य पदार्थ और साइमं स्वादिम पदार्थों को पडिलाभेमाणे - देता हुआ विहरस्सामि - विचरूं से तं साहू - यह मेरा विचार ठीक है ।
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मूलार्थ - हे आयुष्मन् ! श्रमण ! इस प्रकार मैंने धर्म प्रतिपादन किया है । शेष वर्णन पूर्ववत् ही जान लेना चाहिए । इस धर्म में पराक्रम करते हुए निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी को देव और मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों की ओर से वैराग्य उत्पन्न हो जाय, क्योंकि मनुष्यों के काम-भोग अनित्य हैं, इसी प्रकार देवों के काम-भोग भी अनित्य हैं, अनिश्चित, अनियत और विनाश-शील हैं और चलाचल धर्म वाले अर्थात् अस्थिर तथा अनुक्रम से आते और जाते रहते हैं । मृत्यु के पश्चात् अथवा बुढ़ापे से पूर्व ही अवश्य त्याज्य हैं । यदि इस तप और नियम का कुछ फल -विशेष है तो आगामी काल में ये जो महामातृक उम्र आदि कुलों में पुरुष रूप से उत्पन्न होते हैं उन में से किसी एक कुल में मैं भी उत्पन्न हो जाऊं और श्रमणोपासक बनूं । फिर मैं यावत् जीव, अजीव, पुण्य और पाप को भली भांति जानता हुआ यावत् अचित्त और निर्दोष अन्न, पानी, खादिम और स्वादिम पदार्थ को मुनियों को देता हुआ विचरण करूं । यह मेरा विचार ठीक है ।
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टीका - इस सूत्र में क्रमप्राप्त आठवें निदान - कर्म का वर्णन किया गया है । श्री भगवान् कहते हैं कि मेरे कथन किये हुए धर्म पर चलते हुए यदि किसी व्यक्ति के चित्त में मानुषिक और दैविक काम-भोगों की ओर से वैराग्य पैदा हो जाय और वह अपने मन में विचारने लगे कि यदि मैं उग्र आदि कुलों में उत्पन्न होकर श्रमणोपासक बनूं तो बहुत ही अच्छा है, क्योंकि श्रमणोपासकवृत्ति मेरे विचार में बहुत ही अच्छी है । किन्तु मैं नाम-मात्र का श्रमणोपासक नहीं बनना चाहता अपितु जितने भी श्रमणोपासक के गुण हैं
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