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दशमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
केवलि - भाषित धर्म में श्रद्धा, विश्वास और रुचि करने लग जाता है, किन्तु यह सम्भव नहीं कि वह शील, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवासादि व्रतों को ग्रहण करे । वह दर्शन श्रावक हो जाता है |
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टीका - इस सूत्र में सातवें निदान-कर्म का फल वर्णन किया गया है । पूर्वोक्त निदान - कर्म कर वह निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी देव-लोक में अपने संकल्पों के अनुसार सुखों का अनुभव करता है । वह पूर्वोक्त दैविक ऐश्वर्य का अच्छी तरह उपभोग करता है । शेष सब वर्णन पूर्ववत् ही है किन्तु विशेषता केवल इतनी ही है कि वह केवलि-भाषित धर्म पर श्रद्धा, विश्वास और रुचि करने लग जाता है किन्तु वह शील- व्रत, गुण-व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा अष्टमी आदि पर्व-दिनों में पौषधोपवासादि क्रियाएं ग्रहण नहीं कर सकता । यह फल उसको उक्त निदान - कर्म का मिलता है कि वह केवल दर्शन - श्रावक ही रह जाता है अर्थात् सम्यक्त्व की प्राप्ति की अपेक्षा से या सम्यक्त्व के आश्रित होने से उसको दर्शन - श्रावक कहते हैं । इसके विषय में वृत्तिकार लिखते हैं "सम्यक्त्वं तदाश्रित्य श्रावको निगद्यते" अर्थात् सम्यक्त्व के आश्रित होने के कारण उसको दर्शन - श्रावक कहा जाता है ।
फिर सूत्रकार इसी से सम्बन्ध रखते हुए कहते हैं :
अभिगत-जीवाजीवे जाव अट्टि मिज्जा पेमाणुरागरत्ते अयमाउसो निग्गंथ-पावयणे अट्टे एस परमट्टे सेसे अणट्टे । सेणं तारूवेणं विहारेणं विहरमाणे बहूइं वासाइं समणोवासग परियागं पाउणइ बहूइं वासाई पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति । एवं खलु समणाउसो तस्स णिदाणस्स इमेयारूवे पावए फल- विवागे जं णो संचाएति सीलव्वय-गुणव्वय-पोसहोववासाइं पडिवज्जित्तए ।
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अभिगत-जीवाजीवो यावदस्थिमज्जाप्रेमानुरागरक्तोऽयम्, आयुष्मन् ! निर्ग्रन्थ-प्रवचनोऽर्थः परमार्थः शेषोऽनर्थः । स नु एतद्रूपेण विहारेण विहरन्
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