________________
. 0
000.
दशमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
४२६
मूलार्थ-हे आयुष्मन् ! श्रमण ! इस प्रकार मैंने धर्म प्रतिपादन किया है । यावत् मनुष्यों के काम-भोग अनियत हैं, शेष पूर्ववत् ही है । ऊर्ध्व देव-लोक में जो देव हैं वे अन्य देवों की देवियों से काम-उपभोग नहीं करते, अपनी ही आत्मा से विकुर्वणा (प्रकट) की हुई देवियों से भी मैथुन-क्रिया नहीं करते किन्तु अपनी ही देवियों को वश में कर उनको मैथुन में प्रवृत्त करते हैं | यदि इस तप-नियम आदि का कोई फल है तो मैं भी देव-लोक में अपनी ही देवी से काम-क्रीड़ा करने वाला बनूं । वह अपनी इस भावना के अनुसार देव बन जाता है इत्यादि सब पूर्ववत् ही जान लेना चाहिए । हे आयुष्मन् ! श्रमण ! निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी इस प्रकार निदान करके बिना उसी स्थान पर उसकी आलोचना किये और उससे बिना पीछे हटे कालमास में, काल करके, देवरूप से विचरता है ।
टीका-इस सूत्र में बताया गया है कि सातवें निदान-कर्म में निर्ग्रन्थ ने उक्त तीनों प्रकार की दैविक काम-क्रीड़ाओं में से केवल तीसरी क्रीड़ा का संकल्प किया । वह उसी स्थान पर उसकी आलोचना न करने से तथा उसके लिये प्रायश्चित्त न करने के कारण मृत्यु होने पर देव बन जाता है और फिर पूर्वोक्त दैविक ऐश्वर्य उपभोग करता है इत्यादि सब पूर्ववत् ही है ।
अब सूत्रकार इसी से सम्बन्ध रखते हुए कहते हैं :
से णं तत्थ णो अण्णेसिं देवाणं अण्णं देविं अभिमुंजिय परियारेति, णो अप्पणा चेव अप्पाणं वेउव्विय परियारेति, अप्पणिज्जाओ देवीओ अभिमुंजिय परियारेति, से णं ततो आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं-तहेव वत्तव्वं । णवरं हता सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा, से णं सील-व्वत-गुण-वेरमणपच्चक्खाण-पोसहोववासाइं पडिवज्जेज्जा णो तिणढे समढे, से णं दंसण-सावए भवति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org