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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
बहूनि वर्षाणि श्रमणोपासक पर्यायं पालयति बहूनि वर्षाणि पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वान्यतरेषु देव-लोकेषु देवतयोपपत्ता भवति । एवं खलु श्रमण ! आयुष्मन् ! तस्य निदानस्यैतद्रूपः पापकः फल-विपाको यन्न शक्नोति शीलव्रत - गुणव्रत - पौषधोपवासानि प्रतिपत्तुम् ।
दशमी दशा
पदार्थान्वयः - अभिगतजीवाजीवे - जो जीव और अजीव को जानता है जाव- यावत् श्रावक के गुणों से युक्त है अतः अट्ठिमिज्जा - हड्डी और मज्जा में पेमाणुरागस्ते - धर्म के प्रेम - राग से अनुरक्त है आउसो हे आयुष्मन् ! अयं - यह निग्गंथ-पावयणे-निर्ग्रन्थ-प्रवचनरूप धर्म ही अट्ठे- सार्थक और सत्य है परमट्ठे-यही परमार्थ है सेसे-शेष अणट्टे-अनर्थ अर्थात् मिथ्या है, संसार - वृद्धि का कारण है से णं-फिर वह एतारूवेणं - इस प्रकार के विहारेणं - विहार से विहरमाणे- विचरता हुआ बहूइं - बहुत वासाइं वर्ष तक समणोपासग-श्रमणोपासक परियागं-पर्याय को पाउणइ-पालन करता है फिर बहूइं बहुत वासाइं-वर्ष तक परियागं- श्रमणोपासक के पर्याय को पाउणित्ता - पालन कर कालमासे-मृत्यु के समय कालं किच्चा - काल करके अण्णतरेसु - किसी एक देवलोएसु - देव - लोक में देवत्ताए - देवरूप से उववत्तारो भवति - उत्पन्न होता है । समणाउसो - हे आयुष्मन् ! श्रमण ! एवं खलु - इस प्रकार तस्स उस णिदाणस्स - निदान का इमेयारूवे - यह इस प्रकार का पावए - पापरूप फलविवागे-फल- विपाक होता है जं-जिससे सीलव्वय - शील- व्रत गुणव्य-गुण-व्रत और पोसहोववासाइं- पौषधोपवास आदि पडिवज्जित्तए-ग्रहण करने को संचाति-शक्ति नहीं रहती अर्थात् उस निदान कर्म के प्रभाव से श्रावक के बारह व्रतों के धारण करने की शक्ति, निदान - कर्म करने वाले में, नहीं रहती है, अपितु वह दर्शन - श्रावक ही रह जाता है ।
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मूलार्थ - वह जीव और अजीव को जानता है और श्रावक के गुणों से सम्पन्न होता है, उसकी हड्डी और मज्जा में धर्म का अनुराग कूट-२ कर भरा रहता है, हे आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन ही सत्य और परमार्थ है । शेष सब अनर्थ है । इस प्रकार के विहार से विचरता हुआ बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक के पर्यायों का पालन करता है और फिर उस पर्याय का पालन कर मृत्यु के समय काल करके किसी एक
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