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दशमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
नहीं करते, किन्तु अपनी ही आत्मा से देव और देवियों के भिन्न स्वरूप धारण कर काम-क्रीड़ा करते हैं अथवा अपनी - २ देवियों को वश में कर उनको कामोपभोगों में प्रवृत्त कराते हैं । यदि इस तप-नियम इत्यादि सब पूर्ववत् ही है । वह व्यक्ति केवलि-भाषित धर्म पर श्रद्धा करे, विश्वास करे और उसमें रुचि करे, यह सम्भव नहीं अर्थात् वह धर्म पर श्रद्धा आदि नहीं कर सकता ।
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टीका - इस सूत्र कहा गया है कि निदान कर्म करने वाले ने अपने चित्त मे विचार किया कि देव - लोक में ऐसे भी देव हैं जो दूसरों की देवियों के साथ प्रेम-लीला नहीं करते, किन्तु अपनी आत्मा से ही देव और देवियों के दो भिन्न स्वरूप बनाकर परस्पर उपभोग करते हैं अथवा अपनी ही देवियों के साथ उपभोग कर सन्तुष्ट रहते हैं । यदि मेरे इस तप और नियम का कोई फल है तो मैं भी उक्त दोनों प्रकार की क्रीड़ाओं का करने वाला देव बनूं । वह तप आदि के प्रभाव से उसी प्रकार का देव बन जाता है । जब उसके दैविक कर्म क्षय हो जाते हैं तो वह पुनः मर्त्यलोक में उग्र या भोग कुल में पुत्र - रूप से उत्पन्न हो जाता है । वहां उसको सांसारिक उपभोगों की सारी सामग्री मिल जाती है, उस में फंस कर वह फिर केवलि - प्रतिपादित धर्म में श्रद्धा, विश्वास और रुचि नहीं कर सकता, क्योंकि उक्त कर्म के प्रभाव से उसके चित्त में मोहनीय कर्म का प्रबल उदय होने लगता है, जिसके कारण उसके चित्त से धर्म की भावना ही उड़ जाती है ।
यह निदान - कर्म का ही फल है कि उसको जैन-दर्शन पर श्रद्धा नहीं होती । प्रश्न यह उपस्थित होता है कि क्या उसकी श्रद्धा किसी अन्य धर्म पर भी हो सकती है ? इसका उत्तर स्वयं सूत्रकार देते हैं
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अण्णरुई रुइ-मादाए से य भवति । से जे इमे आरण्णिया आवसहिया गामंतिया कण्हुइ रहस्सिया णो बहु-संजया णो बहु-विरया सव्व - पाण- भूय - जीव-सत्तेसु अप्पणा सच्चा-मोसाइं एवं विपडिवदंति अहं ण हंतव्वो अण्णे हंतव्वा अहं ण अज्झावेतव्वो अणे अज्झावेतव्वा अहं ण परियावेयव्वो अण्णे परियावेयव्वा
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