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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
अहं ण परिघेतव्वो अण्णे परिघेतव्वा अहं ण उवद्दवेयव्वो अण्णे उवद्दवेयव्वा । एवामेव इत्थिकामेहिं मुच्छिया गढिया गिद्धा अज्झोववण्णा जाव कालमासे कालं किच्चा अण्णतराइं असुराई किब्बिसियाइं ठाणाइं उववत्तारो भवंति । ततो विमुच्चमाणा भुज्जो एल- मूयत्ताए पच्चायंति । एवं खलु समणाउसो तस्स णिदाणस्स जाव णो संचाएति केवलि - पण्णत्तं धम्मं सद्दहित्तए वा ।
दशमी दशा
अन्यत्ररुची रुचि मात्रया स च भवति । अथ य इम आरण्यका आवसथिका ग्रामान्तिका क्वचिद् राहसिका न बहुसंयता न बहु-विरताः सर्व प्राणि भूतजीव-सत्त्वेष्वात्मनः सत्यमृषे विप्रतिवदन्ति । अहं न हन्तव्योऽन्ये हन्तव्या अहन्ना-ज्ञापयितव्योऽन्य आज्ञापयितव्या अहन्न परितापयितव्योऽन्ये परितापयितव्या अहन्न परिगृहीतव्योऽन्ये परिगृहीतव्या अह नोपद्रवितव्योऽन्य उपद्रवितव्याः । एवमेव स्त्री-कामेषु मूर्च्छिता ग्रथिता गृद्धा अध्युपपन्ना यावत्कालमासे कालं कृत्वासुराणां किल्बिषकानां स्थानेषूपपत्तारो भवन्ति । ततो विमुच्यमाना भूय एड-मूकत्वेन प्रत्यायान्ति । एवं खलु श्रमण ! आयुष्मन् ! तस्य निदानस्य यावन्न शक्नोति केवलि - प्रज्ञप्तं धर्मं श्रद्धातुं वेत्यादि ।
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पदार्थान्वयः - अण्णरुई उसकी जैन-दर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों में रुचि होती है और फिर वह रुइ-मादाए - रुचि की मात्रा से से य भवति - वह नीचे लिखे पुरुषों के समान हो जाता है, जैसे-से-अथ जे- जो इमे- ये प्रत्यक्ष आरणिया-अरण्य (जङ्गल) में रहते हैं आवसहिया - पत्तों की झोपड़ियों में रहने वाले हैं गामंतिया - ग्राम के समीप रहने वाले हैं कण्हुइ रहस्सिया - किसी भी कार्य में रहस्य रखने वाले हैं णो बहु-संजया - द्रव्य से भी बहुत संयत नहीं होते अर्थात् उनका चित्त इस प्रकार चञ्चल होता है कि द्रव्यों की ओर से भी उसको अपने वश में नहीं रख सकते सव्व - पाण- भूय - जीव- सत्तेसु - सब प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व विषयक हिंसा से भी णो बहु-विरया - जो निवृत्त नहीं हुए हैं अप्पणा - अपने सच्चा-मोसाइं- सच और झूठ को एवं - इस प्रकार विपडिवदंति-झगड़ों से
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