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दशमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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सम्भव नहीं कि वह उसमें श्रद्धा, विश्वास और रुचि करे, क्योंकि निदान-धर्म के प्रभाव से वह श्रद्धा करने के अयोग्य हो जाता है | वह तो बड़ी-२ इच्छाओं वाला हो जाता है और परिणाम में दक्षिण-गामी नारकी तथा जन्मान्तर में दुर्लभ-बोधिक होता है । हे आयुष्मन् ! श्रमण ! उस निदान-कर्म का इस प्रकार पाप-रूप फल-विपाक होता है कि जिससे वह केवली भगवान् के कहे हुए धर्म में श्रद्धा, विश्वास और रुचि की शक्ति भी नहीं रखता ।
टीका-इस सूत्र में कहा गया है कि जो व्यक्ति निदान-कर्म करता है उसकी सारी आत्मिक शक्तियां नष्ट हो जाती हैं । उसमें इतनी शक्ति भी नहीं रहती कि वह केवलि-भाषित धर्म में श्रद्धा भी कर सके । निदान-कर्म के प्रभाव से उसकी आत्मा में महा--मोहनीय कर्म के परमाणुओं का विशेष रूप से उदय होना प्रारम्भ हो जाता है, जो धर्म में श्रद्धा और विश्वास उत्पन्न नहीं होने देते । अतः आर्य पुरुषों को उक्त कर्म का त्याग करना ही श्रेयस्कर है ।
अब सूत्रकार छठे निदान कर्म का वर्णन करते हैं :___ एवं खलु समणाउसो मए धम्मे पण्णते तं चेव । से य परक्कमेज्जा परक्कममाणे माणुस्सएसु काम-भोगेसु निव्वेदं गच्छेज्जा; माणुस्सगा खलु कामभोगा अधुवा अणितिया । तहेव जाव संति उड्ढं देवा देवलोगंसि ते णं तत्थ णो अण्णेसिं देवाणं अण्णं देविं अभिमुंजिय परियारेति । अप्पणो चेव अप्पाणं विउव्वित्ता परियारेति । अप्पणिज्जियावि देवीए अभिजुंजिय परियारेति । जइ इमस्स तव-नियम-तं चेव सव्वं जाव से णं सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा-णो तिणढे समढे । __ एवं खलु, श्रमण ! आयुष्मन् ! मया धर्मः प्रज्ञप्तः-तच्चैव स च पराक्रमेत्,
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