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दशमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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यद्यस्य तपोनियमस्य-यावदस्ति वयमपि न्वागमि-ष्यति (काले) इमानेतद्रूपानुदारान् पुरुष-भोगान् भुञ्जन्त्यो विहरिष्यामः । तदेतत्साधु ।
पदार्थान्वयः-जइ-यदि इमस्स-इस तव-नियमस्स-तप और नियम का जाव-यावत् अत्थि-विशेष फल है तो वयमवि-हम भी आगमेस्साणं-भविष्य में इमेयारूवाई-इन सब प्रकार के ओरालाइं-श्रेष्ठ पुरिस-भोगाई-पुरुष-सम्बन्धी भोगों को भुंजमाणा-भोगती हुई विहरिस्सामो-विचरण करेंगी से तं साहु-यह हमारा विचार ठीक है।
मूलार्थ-यदि इस तप और नियम का कोई फल विशेष है तो हम भी भविष्य में इसी प्रकार के उत्तम पुरुष-भोगों को भोगते हुए विचरेंगी । यही ठीक है।
टीका-इस सूत्र में भी कोई नई बात नहीं है । जैसे पहले के निदान कर्मों के विषय में निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों ने अपने तप, नियम और ब्रह्मचर्य आदि व्रतों के फल-स्वरूप उग्र और भोग कुलों में उत्पन्न होने के संकल्प किये थे, इसी प्रकार यहां भी निर्ग्रन्थियों ने अपने व्रतों के फल-रूप पुरुषत्व की कामना की ।
अब सूत्रकार उनके इस संकल्प का फल बताते हैं :
एवं खलु समणाउसो! णिग्गंथी णिदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइय अप्पडिक्कंता जाव अपडिवज्जित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति । सा णं तत्थ देवे भवति महिड्ढिए जाव महासुक्खे । सा णं ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता जे इमे भवंति उग्गपुत्ता तहेव दारए जाव किं ते आसगस्स सदति तस्स णं तहप्पगारस्स पुरिसजातस्स जाव अभविएणं से तस्स धम्मस्स सवणताए । से य भवति महिच्छे जाव दाहिणगामिए जाव दुल्लभबोहिए यावि भवति । एवं खलु जाव पडिसुणित्तए ।
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