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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
नवमी दशा
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'कथा-राजकथादि, अधिकरणानि-यन्त्रादीनि कलहादीनि वा' अन्य तीर्थों के नाश के लिए पुनः-२ कलहादि का प्रयोग करता है वह महा-मोहनीय कर्म की उपार्जना करता है । क्योंकि सूत्र में लिखा है 'सर्वतीर्थभेदाय-सर्वेषां तीर्थानां-ज्ञानादिमुक्तिमार्गाणां भेदाय-सर्वथा नाशाय प्रवर्तमानः । ज्ञानादीनि हि संसार-सागर-तरण-कारणानि' अर्थात् मुक्ति की ओर ले जाने वाले जितने भी ज्ञानादि तीर्थ हैं, उक्त कथाओं में बार-२ प्रवृत्त होने से उनका नाश होता है और आत्मा महा-मोहनीय कर्म के बन्धन में आ जाता है |
किन्तु यह दण्ड-विधान केवल 'अनर्थ-दण्ड' अर्थात् बिना किसी प्रयोजन के केवल मनोविनोद के लिए किये जाने वाले हिंसादि कुकृत्यों के लिए है । क्योंकि गृहस्थ के 'अर्थ-दण्ड' अर्थात् अपने शरीर की रक्षा के लिए किये जाने वाले कर्मों का त्याग नहीं होता किन्तु साधु के लिए दोनों 'दण्डों' का प्रत्याख्यान है । अतः यदि साधु किसी प्रयोजन से भी और गृहस्थ 'अनर्थ-दण्ड' के आश्रित होकर अथवा केवल मोक्ष मार्ग के नाश के लिए उक्त क्रियाएं करता है तो अवश्य ही उक्त कर्म के बन्धन में आ जायगा, क्योंकि उक्त क्रियाओं के करने से वह अपने आपको और दूसरों को दुर्गति की ओर ले जाता है ।
इस सूत्र से प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा लेनी चाहिए कि हिंसा-प्रतिपादक तथा काम-शास्त्रादि ग्रन्थों का उपदेश करना पाप-पूर्ण होने से भव्य आत्माओं के लिए हेय (त्याज्य) है |
अब सूत्रकार सत्ताईसवें स्थान में भी उक्त विषय के सम्बन्ध में ही कहते हैं:जे अ आहम्मिए जोए संपउंजे पुणो पुणो । सहा-हेउं सही-हेउं महामोहं पकुव्वइ ।।२७।। यश्चाधार्मिकं योगं संप्रयुङ्क्ते पुनः-पुनः । श्लाघा-हेतोः सखी-हेतोर्महामोहं प्रकुरुते ।।२७।।
पदार्थान्वयः-जे-जो कोई आहम्मिए–अधार्मिक जोए-योग-वशीकरणादि का पुणो-पुणो-बार-बार सहा-हेउं–श्लाघा के लिए अ-तथा सही-हेउं-मित्रता के लिए संपउंजे-प्रयोग करता है वह महामोह-महा-मोहनीय कर्म की पकुव्वइ-उपार्जना करता
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