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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
दशमी दशा
उच्चावयाई सत्थाई उरसि चेव पडिसंवेदेति । तं दुक्खं खलु पुमत्ताए । इत्थि-तणयं साहु । जइ इमस्स तव-नियम-बंभचेर-वासस्स फलवित्ति-विसेसे अत्थि वयमवि आगमेस्साणं इमेतारूवाइं उरालाई इत्थि-भोगाइं भुंजिस्सामो से तं साहु ।
दुःखं खलु पुरुषत्वम् । य इमे उग्रपुत्रा महामातृका भोगपुत्रा महामातृका एतेषामन्यतरेषूच्चावचेषु महा-समर-संग्रामेषूच्चावचानि शस्त्रणयुरसि चैव प्रतिसंविदन्ति, तदुःखं खलु पुरुषत्वम्, स्त्री-तनूरेव साधु । यद्यस्य तपोनियम-ब्रह्मचर्य-वासस्य फल-वृत्ति-विशेषोऽस्ति वयमप्यागमिष्यति (काले) एतद्रूपानुदारान् स्त्री-भोगान्यभोक्ष्यामहे । तदेतत् साधु ।
पदार्थान्वयः-पुमत्ताए-संसार में पुरुष होना दुक्खं खलु-कष्ट-प्रद है । जे-जो इमे-ये उग्गपुत्ता-उग्र-पुत्र महामाउया-महा-मातृक हैं भोग-पुत्ता-भोग-पुत्र महामाउया-महामातृक हैं एतेसिं-इनकी णं-वाक्यालङ्कारे अण्णतरेसु-किसी एक उच्चावएसु-ऊंचे नीचे महा-समर-संगामेसु-बड़े भारी युद्ध में उच्चावयाइं-छोटे अथवा बड़े सत्थाई-शस्त्र उरसि-छाती में लगे हुए पडिसंवेदेति-कष्टों का अनुभव कराते हैं तं-अतः खलु-निश्चय से च-और एव-समुच्चय और अवधारणा अर्थ में हैं पुमत्ताए-पुरुषत्व दुक्खं-कष्टकर है इत्थि-तणयं साहु-स्त्रीत्व ही अच्छा है (क्योंकि स्त्री को कोई भी सांग्रामिक कष्ट नहीं देखना पड़ता) अतः जइ-यदि इमस्स-इस तव-तप नियम-नियम और बंभचेर-वासस्स-ब्रह्मचर्य-वास का फल-वित्तिविसेसेऽत्थि-विशेष फल है तो वयमवि-हम भी आगमेस्साणं-आगामी काल में जाव-यावत् इमेतारूवाइं-इन इस प्रकार के उरालाइं-श्रेष्ठ इत्थि-भोगाइं-स्त्री-भोगों को भुंजिस्सामो-भोगेंगे । से तं-यही साहु-ठीक है अर्थात् यह हमारा विचार बहुत ही अच्छा है |
मूलार्थ-संसार में पुरुषत्व, निश्चय ही, कष्टकर है । जो ये उग्रपुत्र महा-मातृक हैं और भोगपुत्र महामातृक हैं उनको किसी न किसी बड़े या छोटे महायुद्ध में छोटे या बड़े शस्त्र से विद्ध होना पड़ता है । अतः पुरुष
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