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दशमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
क्योंकि वह धर्म सुनने के अयोग्य होती है । वह तो उत्कट इच्छाओं वाली हो जाती है और दक्षिण दिशा की ओर जाने वाली नारकिणी तथा भविष्य में दुर्लभ-बोधि कर्मों को इकट्ठा करने वाली होती है । हे आयुष्मन् श्रमण ! यह इस प्रकार का निदान - कर्म का पाप-रूप फल- विपाक है जिससे केवलि-भाषित धर्म को सुनने की शक्ति भी जाती रहती है ।
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टीका - इस सूत्र अर्थ भी दूसरे निदान कर्म के अन्तिम सूत्र से मिलता जुलता ही है । निदान कर्म करके निर्ग्रन्थ स्त्री हो जाता है ओर वह स्त्री फिर धर्म को सुन भी नहीं सकती, क्योंकि भोग विलास में फंसे रहने के कारण उसको बोधि कर्म दुर्लभ हो जाता है । जिसके कारण वह नरक में उत्पन्न होती है । अतः अपनी आत्मा की शुभ कामना करने वाले निर्ग्रन्थ को निदान-कर्म भूल कर भी नहीं करना चाहिए । यह सर्वथा त्याज्य है । शेष सब सुगम ही है ।
अब सूत्रकार चतुर्थ निदान - कर्म का वर्णन करते हैं:
एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते इणमेव णिग्गंथे पावयणे सच्चे सेसं तं चेव जाव अंतं करेति । जस्स णं धम्मस्स निग्गंथी सिक्खाए उवट्टिया विहर-माणी पुरा दिगिंच्छाए पुरा जाव उदिण्णकामजाया वि- विहरेज्जा सा य परक्कमेज्जा सा य परक्कममाणी पासेज्जा जे इमे उग्गपुत्ता महामाउया भोगपुत्ता महामाउया तेसिं णं अण्णयरस्स अइजायमाणे वा जाव किं ते आस-गस्स सदति जं पासित्ता णिग्गंथी णिदाणं करेति ।
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एवं खलु श्रमण ! आयुष्मन् ! मया धर्मः प्रज्ञप्त इदमेव निर्ग्रन्थ प्रवचनं सत्यं शेषं तच्चैव यावदन्तं करोति, यस्य नु धर्मस्य निर्ग्रन्थी शिक्षाया उपस्थिता विहरन्ती पुरा जिधि- त्सया पुरा यावदुदीर्ण-व -काम-जाता
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