________________
-
४०८
दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
दशमी दशा
00
चापि विहरेत् । सा च पराक्रमेत् सा च पराक्रमन्ती पश्येद् य इमे उग्रपुत्रा महामातृका भोगपुत्रा महामातृका स्तेषान्न्वन्यतरस्यातियातो वा यावत्किं ते आस्यकस्य स्वदते । तं दृष्ट्वा निर्ग्रन्थी निदानं करोति ।
पदार्थान्वयः-समणाउसो-हे आयुष्मान् ! श्रमण ! मए-मैंने एवं खलु-इस प्रकार निश्चय से धम्मे-धर्म पण्णत्ते-प्रतिपादन किया है इणमेव-यही णिग्गंथे पावयणे-निर्ग्रन्थ-प्रवचन सच्चे-सत्य है सेसं-शेष वर्णन तं चेव-पूर्ववत् है जाव-यावत् अंतं करेति-सब दुःखों का अन्त करने वाला होता है जस्स णं-जिस धम्मस्स-धर्म की सिक्खाए-शिक्षा के लिये उवट्ठिया-उपस्थित होकर विहरमाणा-विचरती हुई निग्गंथी-निर्ग्रन्थी पुरादिगिंच्छाए-पूर्व बुभुक्षा से पुरा-पूर्व जाव-यावत् उदिण्णकामजायावि-काम-वासना के उदय होने से विहरेज्जा-विचरे य-और सा-फिर वह परक्कमेज्जा-देखे कि जे-जो इमे-ये उग्गपुत्ता-उग्र-पुत्र महामाउया-महामातृक हैं भोगपुत्ता-भोग-पुत्र महामाउया-महामातृक हैं तेसिं णं-उनमें से अण्णयरस्स-किसी एक के अइजायमाणे वा-घर के भीतर (अथवा घर से बाहर) जाते हुए जाव-यावत् ते-आपके आसगस्स-मुख को किं सदति-कौन सा पदार्थ अच्छा लगता है जं-जिसको पासित्ता-देखकर निग्गंथी-निर्ग्रन्थी णिदाणं-निदान-कर्म करेति-करती है ।
मूलार्थ-हे आयुष्मन् ! श्रमण ! मैंने इस प्रकार धर्म प्रतिपादन किया है । यही निर्ग्रन्थ-प्रवचन सत्य है (शेष वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए) और सब दुःखों को अन्त करने वाला होता है । जिस धर्म की शिक्षा के लिए उपस्थित होकर विचरती हुई निर्ग्रन्थी पूर्व बुभुक्षा (भूख) से उदीर्ण-कामा होकर विचरे और फिर संयम में पराक्रम करे तथा पराक्रम करती हुई । देखे कि जो ये उग्र और भोग कुलों के महामातृक पुत्र हैं उनमें से किसी एक के घर के भीतर (अथवा घर से बाहर जाते हुए सेवक प्रार्थना करते हैं कि आपके मुख को क्या अच्छा लगता है उनको देखकर निर्ग्रन्थी निदान-कर्म करती है ।
टीका-इस सूत्र में भी सब वर्णन पूर्ववत् ही है ऐसी कोई उल्लेखनीय विशेषता २ नहीं, जो कुछ है भी वह मूल में ही स्पष्ट की गई है।
स
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org