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दशमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
होना महाकष्ट है और स्त्री होना अत्युत्तम । यदि इस तप, नियम और ब्रह्मचर्य-वास का कुछ विशेष फल है तो हम भी आगामी काल में यावत् इस प्रकार के प्रधान स्त्रियों के काम-भोगों को भोगते हुए विचरण करेंगे । यह हमारा विचार श्रेष्ठ है ।
टीका- इस सूत्र में दिखाया गया है कि निर्ग्रन्थ तृतीय निदान-कर्म किस प्रकार करता है । जब निर्ग्रन्थ पूर्व- वर्णित स्त्री को देखता है तो मन में विचार करने लगता है कि संसार में पुरुष होना निस्सन्देह कष्टकर है क्योंकि पुरुष को अनेक उच्च - महापुरुषों से रचित और नीच - भिल्ल - किरातादियों से रचित संग्रामों में शघ्नी (तोप) आदि उच्च और पत्थर आदि नीच अस्त्रों से विद्ध होकर अनेक कष्ट सहन करने पड़ते हैं । अतः स्त्री होना ही ठीक है, क्योंकि उसे किसी भी संग्राम में नहीं जाना पड़ता । यदि हमारे इस तप, नियम और बह्मचर्य का कोई विशेष फल है तो हम भी दूसरे जन्म में स्त्री - सम्बन्धी भोगों को ही भोगेंगे, क्योंकि स्त्रीत्व उत्तम है ।
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अब सूत्रकार उक्त विषय से ही सम्बन्ध रखते हुए कहते हैं:
एवं खलु समणाउसो ! णिग्गंथे णिदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइय अप्पडिक्कते जाव अपडिवज्जित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति । से णं तत्थ देवे भवति महिड्ढिए जाव विहरति । से णं ताओ I देवलोगाओ आउ-क्खएणं भव - क्खएणं जाव अनंतरं चयं चइत्ता अण्णतरंसि कुलंसि दारियत्ताए पच्चायाति ।
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एवं खलु श्रमण ! आयुष्मान् ! निर्ग्रन्थो निदानं कृत्वा तत्स्थानमनालोच्य (ततः) अप्रतिक्रान्तोऽप्रतिपद्य कालमासे कालं कृत्वान्यतरेषु देवलोकेषु देवतयोपपत्ता भवति । स नु तत्र देवो भवति, महर्द्धिको यावद्विहरति । स नु तस्माद्देव लोकादायुः क्षयेण भव-क्षयेण यावदनन्तरं चयं त्यक्त्वान्यतरस्मिन्कुले दारिकातया प्रत्यायाति ।
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