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नवमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
अतिरिक्त ये चित्त की मलिनता को बढ़ाने वाले भी होते हैं । अतः श्री भगवान् आज्ञा करते हैं कि इनको छोड़ साधु आत्म- गवेषक अथवा आप्त- गवेषक होता हुआ संयम में लीन हो जाय जिससे परिणाम में संसार-चक्र से मुक्ति मिलेगी ।
अपनी आत्मा को अपने आप में देखने की इच्छा करने वाला आत्म- गवेषक कहलाता है और श्री तीर्थङ्कर देव आदि की आज्ञानुसार क्रिया करने वाला आत्म- गवेषक कहलाता है । कहने का तात्पर्य इतना ही है कि मोह आदिक कर्मों के बन्धन से छुटकारा पाने के लिए उक्त तीस दोषों का त्याग कर आत्म-स्वरूप में प्रविष्ट होने का प्रयत्न करना चाहिए ।
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अब सूत्रकार साधुओं को और उपदेश करते हैं :
जंपि जाणे इत्तो पुव्वं किच्चाकिच्चं बहु जढं । तं वंता ताणि सेविज्जा जेहिं आयारवं सिया ।।
यदपि जानीयादितः पूर्वं कृत्याकृत्यं बहु त्यक्त्वा । तद् वान्त्वा तानि सेवेत यैराचारवान् स्यात् ।।
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पदार्थान्वयः - इत्तो पुव्वं - दीक्षा से पूर्व जंपि - जो कुछ बहु-बहुत से किच्चाकिच्चं - कृत्य और अकृत्य को जाणे - जानता हो उनको जढं छोड़कर और फिर तं- उनको वंता - वमन कर ताणि- उन जिन वचनों को सेविज्जा - सेवन करे जेहिं जिनसे आयारवं - आचारवान् सिया- हो जावे ।
मूलार्थ - दीक्षा से पूर्व जो कुछ भी कृत्याकृत्य जानता हो उनको छोड़ कर और अच्छी प्रकार से वमन कर जिन वचनों को सेवन करे, जिससे आचारवान् हो जावे ।
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टीका - यह सूत्र भी उपदेश - रूप ही है । जब कोई साधु दीक्षा ग्रहण करता है तो उसको अच्छी तरह जानना चाहिए कि इससे पूर्व किये हुए जितने भी व्यापार आदिक कृत्य तथा अनाचारादि न करने योग्य, अकृत्यों को छोड़कर ही दीक्षा ग्रहण की जाती है । क्योंकि जब तक कोई गृहस्थ में रहता है तब तक उसको अनेक प्रकार के कृत्याकृत्यों में लिप्त रहना पड़ता है । किन्तु दीक्षा ग्रहण करने के अनन्तर उसको यह
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