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नवमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
- ३३५३
का विषय विधान किया गया है । कहने का आशय यह है कि जब ज्ञान और चरित्र एक अधिकरण में हो जाते हैं तो आत्मा आठों प्रकार के कर्मों से मुक्त होकर जन्म-मरण के बन्धन से छट जाता है और उसी का नाम मोक्ष है ।
कार्य का कारण के साथ नित्य सम्बन्ध होता है अर्थात् बिना कारण के कार्य की सत्ता नहीं रहती । जैसे तन्तुओं के अभाव में पट की और मृत्तिका के अभाव में घट की कोई सत्ता नहीं रहती इसी प्रकार कर्मों का क्षय होने पर जन्म-मरण का भी अभाव हो जाता है । क्योंकि कर्म ही जन्म और मरण के कारण हैं । इस कर्म-क्षय का नाम ही मुक्ति, मोक्ष या निर्वाण है ।
आठ कर्मों से रहित व्यक्ति ही भूतकाल में मुक्त हुए हैं और वे ही वर्तमान समय में 'महाविदेहादि' क्षेत्रों में विद्यमान हैं तथा भविष्य में भी वे ही मुक्त होंगे । इसीलिए सूत्र में 'अतिच्छिएति-अतीते काले, अतीष्टे-अतिक्रान्तेऽनन्त-जन्तवो जाति-मरणे विलङ्घय शिवं जग्मुरित्यर्थः । साम्प्रतं संख्याता अतियन्ति-अतिक्रामन्ति भविष्यति कालेऽत्येष्यन्ति च' । इसका अर्थ पहले स्पष्ट किया जा चुका है ।
यहां पर शङ्का यह उपस्थित होती है कि जब आत्मा मुक्त होता है और सिद्ध-गति को प्राप्त होता है तो वह अन्य सिद्धों से भिन्न-रूप होता है या अभिन्न-रूप? समाधान में कहा जाता है कि वह भिन्न-रूप भी होता है और अभिन्न-रूप भी । जैन मत का नाम स्याद्वाद है । वह किसी अपेक्षा से भिन्न-रूप और किसी अपेक्षा से उक्त आत्मा को अभिन्न-रूप मानता है । जैसे 'द्रव्यास्तिक' नय के अनुसार सिद्ध गति में जीव भिन्न-रूप में रहता है, क्योंकि वह आत्मा मुक्त होने पर भी अपने द्रव्य का नाश नहीं करता किन्तु कर्म-रहित होने से 'स्वद्रव्य-शुद्ध होकर मोक्ष में रहता है । किन्तु यदि 'प्रदेशार्थिक' नय के अनुसार विचार किया जाय तो आत्मा मोक्ष-गति में अभिन्न-रूप होकर ही ठहरता है, क्योंकि वहां अनन्त सिद्धों के अपने अपने प्रदेश परस्पर सम्मिलित रहते हैं | जिस प्रकार भिन्न दीपकों का प्रकाश अभिन्न-रूप से दिखाई देता है किन्त वास्तव में दीपक-द्रव्य पृथक्-२ ही होते हैं इसी प्रकार सिद्धों के अपने अपने प्रदेश भिन्न रहते हुए भी उनमें परस्पर इतनी एकता है कि वे भिन्न प्रतीत नहीं होते, किन्तु अभिन्न-रूप ही होते हैं । तथा जिस प्रकार एक ही अन्तःकरण में नाना प्रकार की भावनाएं रहती हैं ठीक उसी प्रकार सिद्धों के विषय में भी जानना चाहिए ।
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