________________
३६६
दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
णं- फिर वह निदान कर्म वाली साध्वी ताओ- उस देव-लोगाओ - देव - लोक से आउ-क्खणं- आयु-क्षय के कारण भव - क्खएणं - देव-भव के क्षय होने के कारण ठिइ - क्खएणं - देव-लोक में स्थिति क्षय होने के कारण अणंतरे-बिना किसी अन्तर के चयं - देव- शरीर को चइत्ता - छोड़कर जे- जो इमे - ये उग्गपुत्ता- उग्र पुत्र महा - साउया-भोगों के अनुरागी और अण्णतरंसि - किसी एक कुलंसि कुल में दारियत्ताए - कन्या - रूप से पच्चायाति-उत्पन्न होती है । फिर सा- वह तत्थ - वहां दारिया - बालिका सुकुमाला - सुकुमार और सुरूवा-रूपवती भवति होती है ।
दशमी दशा
मूलार्थ - हे आयुष्मन् ! श्रमण ! इस प्रकार निर्ग्रन्थी निदान कर्म करके और उसका बिना गुरु से आलोचन किये तथा बिना उससे पीछे हटे मृत्यु के समय काल करके देव-लोकों में से किसी एक में देव-रूप से उत्पन्न हो जाती है । वह ऐश्वर्यशाली देवों में देव हो जाती है । वहां सम्पूर्ण दैविक सुखों का अनुभव करती हुई विचरती है । फिर वह देव- लोक से आयु, भव और स्थिति के क्षय होने के कारण बिना अन्तर के देव शरीर को छोड़ कर, जो ये उम्र और भोग कुलों के महामातृक और भोगों के अनुरागी पुत्र हैं उनमें से किसी एक के कुल में कन्या रूप से उत्पन्न हो जाती है। वहां वह सुकुमारी और रूपवती बालिका होती है ।
Jain Education International
टीका- पहले के सूत्र में बताया गया है कि निर्ग्रन्थ निदान कर्म करने से उग्र या भोग कुल में पुत्र रूप से उत्पन्न होता है । यहां बताया जाता है कि ठीक उसी प्रकार निर्ग्रन्थी निदान कर्म करके उक्त कुलों में से किसी एक में कन्या - रूप से उत्पन्न होती है । उसके हाथ और पैर सुकुमार होते हैं और वह अच्छी रूपवती होती है, क्योंकि तप करते हुए जिस प्रकार के संकल्प उसके चित्त में उत्पन्न हुए थे ठीक उसी प्रकार उसको फल - प्राप्ति भी हो जाती है । किन्तु यह सब तप और संयम का ही फल होता है कि उसको यथा - अभिलषित फल की प्राप्ति होती है । यदि सांसारिक व्यक्ति इस प्रकार के . संकल्प करें तो उनका पूर्ण होना सम्भव नहीं । ऐसे तो संसार में हर एक व्यक्ति मन के लड्डू खाता ही रहता है
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org