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दशमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
हिंसा कार्यों को आरम्भ करने वाला महा-परिग्गहे-बड़े परिग्रह ( ममता ) वाला अहम्मिए - अधार्मिक जाव- यावत् दाहिणगामी - दक्षिणगामी नेरइय-नैरयिक और आगमिस्साणं - आगामी जन्म में दुल्लभ-बोहिए यावि- दुर्लभ - बोधि वाला भी भवइ - होता है । एवं खलु - इस प्रकार निश्चय से समणाउसो - हे चिरजीवी श्रमणो! तस्स-उस णिदाणस्स - निदान कर्म का इमे - यह एयारूवे- इस प्रकार का फल- विवागे - पाप-फल-रूप विपाक (परिणाम) है जं- जिससे केवलि - पन्नत्तं - केवली भगवान् के प्रतिपादित धम्मं-धर्म पत्ति - सुनने के लिए णो संचाएति - समर्थ नहीं हो सकता ।
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मूलार्थ - क्या इस प्रकार के पुरुष को तथा रूप श्रमण या माहन ( श्रावक) दोनों समय केवलि - प्रतिपादित धर्म सुनावे ? हां ! कथन करे, किन्तु यह सम्भव नहीं कि वह उस धर्म को सुने क्योंकि वह उस धर्म के सुनने के योग्य नहीं । वह तो उत्कट इच्छा वाला बड़े-बड़े कार्यों को आरम्भ करने वाला, अधार्मिक, दक्षिण - पथ-गामी नारकी और दूसरे जन्म में दुर्लभ बोधी होता है । हे चिरजीवी श्रमणो ! इस प्रकार उस निदान कर्म का इस प्रकार पाप-रूप फल होता है कि जिससे आत्मा में केवलि - प्रतिपादित धर्म सुनने की शक्ति नहीं रहती ।
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टीका - इस सूत्र में उक्त निदान कर्म का धर्म-विषयक फल वर्णन किया गया है । श्री गौतम स्वामी ने श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से प्रश्न किया कि हे भगवन् ! क्या इस प्रकार निदान कर्म वाला भोगी पुरुष तथा रूप श्रमण या श्रावक से दोनों समय केवलि - प्रतिपादित धर्म सुन सकता है ? भगवान् ने उत्तर दिया कि हे गौतम! श्रमण या श्रमणोपासक उसको धर्म तो सुना सकते हैं किन्तु वह निदान कर्म के कारण धर्म सुन नहीं सकेगा । हे आयुष्मन् ! श्रमण ! उस निदान का इस प्रकार का पाप-रूप फल होता कि उसका करने वाला केवलि - प्रतिपादित धर्म के सुनने के अयोग्य ही हो जाता है, अतः निदान कर्म सर्वथा हेय रूप है, इसके तीन भेद होते हैं - जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट, यहां उत्कृष्ट निदान कर्म के करने वाला जीव ही धर्म श्रवण करने के अयोग्य बताया गया है, शेष नहीं । मध्यम और जघन्य रस वाले जीव निदान कर्म के उदय होने के पश्चात् धर्म-श्रवण या सम्यक्त्वादि की प्राप्ति कर सकते हैं, इस में कृष्ण वासुदेव या द्रौपदी आदि के अनेक शास्त्रीय प्रमाण विद्यमान हैं ।
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