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दशमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
थे। इन कार्यों के लिए वह इतना प्रसिद्ध था कि देश-देशों के लोग इन कलाओं को सीखने के लिए यहां आते थे। उसकी कीर्ति सर्वत्र फैल गई थी। __नगर के बाहर ईशान कोण में गुण-शील नामक एक यक्ष का यक्षायतन था। यह अपनी भव्यता और चित्ताकर्षकता के लिए सर्वत्र प्रसिद्ध था। देश-देशों के लोग इसके दर्शन के लिए आते थे। इस चैत्य के चारों ओर एक उद्यान था, जो इसी नाम से प्रसिद्ध था। उस उद्यान के मध्य में एक अशोक वृक्ष था, जिसके चारों ओर अनेक वृक्ष थे। इसके नीचे एक सिंहासन की आकृति का एक शिला-पट्टक था। उद्यान अत्यन्त मनोहर लता और वृक्षों से घिरा हुआ था।
राजगृह नगर में सम्पूर्ण राज-लक्षणों से युक्त श्रेणिक नाम का राजा राज्य करता था। इसके प्रताप से सारे देश में शान्ति थी और प्रजा निर्विघ्न सुखों का अनुभव कर रही थी।
एक समय राजा ने स्नान किया और शरीर की स्फूर्ति के लिए तैलादि मर्दन कर बलि-कर्म किया। तदनन्तर कौतुक (मस्तक पर तिलक), मंगल (सिद्धार्थक दध्यक्षतादि) तथा दुःस्वप्न आदि अमंगल को दूर करने के लिए पैर से भूमि का स्पर्श किया और गले में नाना प्रकार के मणि और सुवर्ण आदि के आभूषण पहने। एक अठारह लड़ी का हार, एक नौ लड़ी का अर्द्धहार तथा एक तीन लड़ी का हार धारण किया। कटि सूत्र से शरीर को अलंकृत कर फिर ग्रीवा के सम्पूर्ण आभूषणों को पहना। मणि-जटित सुवर्ण की मुद्रिकाओं से अंगुलियां सुशोभित की। मणिजटित वीर-वाली पैरों में पहनीं। इस प्रकार शिर से पैर तक आभूषणों से विभूषित होकर वह कल्पवृक्ष के समान सुशोभित होने लगा। फिर सकोरंट वृक्ष के पुष्पों की माला-युक्त छत्र धारण कर स्नानागार से निकल कर इस प्रकार सुशोभित होने लगा जैसे बादलों से निकल कर चन्द्रमा होता है। वहां से आकर वह जहां उपस्थान–शाला (न्यायालय) थी, जहां वह राज-सिंहासन था, वहीं पर आकर पूर्व की ओर मुंह कर उस उच्च सिंहासन पर बैठ गया। उसने राज-कर्मचारियों को बुला कर उनसे कहाः
गच्छह णं तुम्हे देवाणुप्पिया ! जाइं इमाइं रायगिहस्स : णयरस्स बहिया तं जहा-आरामाणि य उज्जाणाणि य आएसणाणि
य आयतणाणि य देवकुलाणि य सभाओ य पवाओ य
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