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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
फलवृत्ति विशेष है तो हम भी दूसरे जन्म में इस प्रकार के श्रेष्ठ मनुष्य सम्बन्धी काम - भोगों को भोगते हुए विचरण करेंगे । यह हमारा चिन्तित विचार साधु अर्थात् श्रेष्ठ है । यही संकल्प उन साधुओं के चित्त में उस समय श्रेणिक राजा को देखकर उत्पन्न हुए ।
दशमी दशा
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इस सूत्र "भोगभोगाई " आदि नपुंसक लिंग में दिये गए हैं । ये सब प्राकृत होने के कारण दोषाधायक नहीं हैं। क्योंकि "व्यत्ययश्च" सूत्र से प्राकृत में व्यत्यय विशेषता से होते हैं । "नैव मया दृष्टाः- अवलोकिता देवलोके - इत्येकवचनं साध्यवसायिकत्वाद् वक्तुरपेक्षया" इत्यादि ।
यहाँ शङ्का उत्पन्न हो सकती है कि भगवान् के समवसरण में साधुओं के चित्त में ऐसे संकल्प क्यों उत्पन्न हुए ? समाधान में कहा जाता है कि छद्मस्थता के कारण यदि ऐसा हो भी जाय तो कोई आश्चर्य नहीं ।
अब सूत्रकार वर्णन करते हैं कि चेल्लणादेवी को देखकर साध्वियों के चित्त में क्या-क्या विचार उत्पन्न हुए:
अहो णं चेल्लणादेवी महिड्ढिया जाव महा-सुक्खा जा णं हाया, कय-बलिकम्मा, जाव कय- कोउय-मंगल- पायच्छित्ता, जाव सव्वालंकार- विभूसिया सेणिएणं रण्णा सद्धिं उरालाई जाव माणुसगाई भोगभोगाइ भुंजमाणी विहरइ । न मे दिट्ठाओ देवीओ देवलोगंसि, सक्खं खलु इमा देवी । जइ इमस्स सुचरियस्स तव-नियम- बंभचेर- वासस्स कल्लाणे फलवित्ति-विसेसे अत्थि, वयमवि आग - मिस्साणं इमाई एयावाइं उरालाई जाव विहरामो । सेतं साहुणी ।
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अहो नु चेल्लणादेवी महर्द्धिका यावत् महासुखा या स्नाता, कृत-बलिकर्मा, यावत्कृतकौतुक-मङ्गल-प्रायश्चित्ता यावत्सर्वालङ्कार- विभूषिता श्रेणिकेन राज्ञा सार्द्धमुदारान् यावद् मानुषकान् भोगभोगान् भुञ्जन्ती विहरति ।
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