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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
दशमी दशा
टीका-जिस प्रकार महाराज श्रेणिक को देखकर साधुओं के चित्त में विचार उत्पन्न हुए थे उसी प्रकार महाराणी चेल्लणादेवी को देखकर साध्वियों के चित्त में इन सकंल्पों का उत्पन्न होना स्वाभाविक था; क्योंकि जीव अनादि काल से वासना के अधिकार में है, जब उस (वासना) को उत्तेजित करने की सामग्री उपस्थित होती है तो वह विशेष रूप से उत्पन्न हो जाती है । अतः साधुओं के इन संकल्पों को देखकर आश्चर्य नहीं करना चाहिए ।
अब सूत्रकार कहते हैं कि तदनन्तर क्या हुआः
अज्जोति समणे भगवं महावीरे ते बहवे निग्गंथा निग्गंथीओ य आमंत्तेत्ता एवं वयासी-"सेणियं रायं चेल्लणादेविं पासित्ता इमेतारूवे अज्झत्थिते जाव समुप्पज्जित्था । अहो णं सेणिए राया महिड्ढिए जाव सेत्तं साहु । अहो णं चेल्लणादेवी महिड्डिया सुंदरा जाव साहुणी । से णूणं, अज्जो ! अट्टे समढे ?" हंता अत्थि ।
आर्याः! इति श्रमणो भगवान् महावीरस्तान् बहून् निर्ग्रन्थान् निर्ग्रन्थ्यश्चामन्त्र्यैवमवादीत्-"श्रेणिकं राजानं चेल्ल-णादेवीं दृष्टवैतद्रूप आध्यात्मिको यावत् (विचारः) समुप-पद्यत । अहो श्रेणिको राजा महर्द्धिको यावदयं साधु । अहो नु चेल्लणादेवी महर्द्धिका सुन्दरी यावत्साध्वी । अथ नूनम्, आर्याः ! अर्थः समर्थः ?" | हन्त ! अस्ति । ___पदार्थान्वयः-अज्जोति-हे आर्यो ! इस प्रकार समणे-श्रमण भगवं-भगवान् महावीरे-महावीरे ते-उन बहवे-बहुत से निग्गंथा-निर्ग्रन्थ य और निग्गंथीओ-निर्ग्रन्थियों को आमंत्तेत्ता-आमन्त्रित कर एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे सेणियं रायं-श्रेणिक राजा और चेल्लणादेविं-चेल्लणादेवी को पासित्ता-देख कर इमेतारूवे-इस प्रकार अज्झत्थिते-आध्यात्मिक भाव जाव-यावत् समुप्पज्जेत्था-उत्पन्न हुए अहो णं-आश्चर्य है सेणिए राया-श्रेणिक राजा महिड्ढिए-महा ऐश्वर्य वाला है जाव-यावत् हम भी इसी
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