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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
दशमी दशा
मूलार्थ-उसके एक दास को बुलाने पर चार या पांच अपने आप बिना बुलाये ही उपस्थित हो जाते हैं और कहने लगते हैं "हे देव-प्रिय ! कहिए हम क्या करें ? क्या भोजन आपको करावें ? कौनसी वस्तु लावें ? शीघ्र कहिए, क्या करें? आपके हृदय में क्या इच्छा है ? आपके मुख को कौनसी वस्तु स्वादिष्ट लगती है, जिसको देखकर निर्ग्रन्थ निदान कर्म करता है ।
टीका-इस सूत्र में प्रकट किया गया है कि उक्त भोगों और भोगपुत्रों को देखकर भिक्षुक भी निदान कर्म कर बैठता है । उन उग्र भोगपुत्रों का इतना ऐश्वर्य और प्रभाव होता है कि वे जब किसी आवश्यक कार्य के लिए केवल एक सेवक को बुलाते हैं तो चार या पांच बिना बुलाये हुए उत्सुकता से स्वयं उपस्थित हो जाते हैं और कहने लगते हैं कि हमारा अहोभाग्य है कि हमें आपकी सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, अतः हे देव-प्रिय ! आज्ञा करिए हम आपके लिए क्या करें? कौन सा आहार आपको करावें? क्या वस्तु आपकी सेवा में उपस्थित करें ? आपके हृदय में किस वस्तु की इच्छा है । कौन सा पदार्थ आपके पवित्र मुख को स्वादिष्ट लगता है ? इस प्रकार के उसके ऐश्वर्य को देखकर निर्ग्रन्थ निदान कर्म करता है | निदान शब्द का अर्थ विषय भोगों की वांद्दा से प्रेरित होकर किया जाने वाला संकल्प आदि कारण होता है ।
अब सूत्रकार निर्ग्रन्थ के निदान कर्म के विषय में कहते हैं:
जइ इमस्स तव-नियम-बंभचेर-वासस्स तं चेव जाव साहु । एवं खलु समणाउसो निग्गंथे णिदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइय अप्पडिक्कते कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देव-लोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति । महड्ढिएसु जाव चिरट्ठितिएसु से णं तत्थ देवे भवति महड्ढिए जाव चिरहितिए । ततो देवलोगाओ आउ-क्ख-एणं भव-क्खएणं ठिइ-क्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता जे इमे उग्ग-पुत्ता महा-माउया भोग-पुत्ता महा-माउया तेसिं णं अन्नतरंसि कुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाति ।
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