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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
दशमी दशा
इसमें स्थिर बुद्धि से स्थित जीव अणिमा आदि लब्धियों की प्राप्ति करते हैं, केवल-ज्ञान की प्राप्ति करते हैं, सब प्रकार के कर्मों से विमुख होते हैं, सब प्रकार के कर्म-कलङ्क से रहित होने से शान्त-चित्त होते हैं और उनके सब प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःख नष्ट हो जाते हैं, इत्यादि श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने निर्ग्रन्थ-प्रवचन का माहात्म्य वर्णन किया । निर्ग्रन्थ-प्रवचन में मुख्य रूप से दो विषयों का वर्णन किया गया है-श्रुत-धर्म और चारित्र-धर्म । ये दोनों ही आत्मा के कल्याण-कारक हैं।
निर्ग्रन्थ-प्रवचन उस शास्त्र को कहते हैं जिसमें निर्ग्रन्थ अर्थात् श्रमण-धर्म का प्रवचन-विशिष्ट रूप से निरूपण किया गया है । इसका विग्रह इस प्रकार "निर्ग्रन्थानामिदं नैर्ग्रन्थम, प्रवचनम्-प्रकर्षणाभिविधिनोच्यन्ते जीवादयः पदार्था यस्मिस्तत् प्रवचनम्शास्त्रमित्यर्थः ।
अब सूत्रकार वर्णन करते हैं कि श्री भगवान् ने इसके अनन्तर क्या कहाः
जस्स णं धम्मस्स निग्गंथे सिक्खाए उवट्ठिए विहरमाणे पुरादिगिच्छाए पुरापिवासाए पुरावाताऽऽत-वेहिं पुरापुढे विरूव-रूवेहिं परिसहोवसग्गेहिं उदिण्ण-कामजाए विहरिज्जा से य परक्कमेज्जा से य परक्कममाणे पासेज्जा जे इमे उग्ग-पुत्ता महा-माउया, भोग-पुत्ता महा-माउया, तेसिं अण्णयरस्स अतिजायमाणस्स निज्जायमाणस्स पुरओ महं दासी-दास-किंकरकम्मकर-पुरिसाणं अंते परिक्खित्तं छत्तं भिंगारं गहाय निग्गच्छति । __ यस्य नु धर्मस्य निर्ग्रन्थः शिक्षाया उपस्थितो विहरन् पुरा जिघित्सया पुरा पिपासया पुरा वातातपाभ्यां स्पृष्टो विरूपरूपश्च परीषहोपसर्गेरुदीर्ण-कामजातो विहरेत्, स च पराक्रमेत, स च पराक्रमन पश्येत-य इमे उग्र-पुत्रा · महा-मातृकाः, भोग-पुत्रा महा-मातृकाः, तेंषामन्यतरमतियान्तं निर्यान्तं पुरतो महद्दासी-दास-
किङ्कर-कर्मकरपुरुषाणामन्ते परिक्षिप्तम्, छत्रं भृङ्गारञ्च गृहीत्वा निर्गच्छन्तम् ।
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