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दशमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
कर उवलित्तह-लिपवा दो उवलित्तइत्ता-लेपन कर जाव-यावत् करित्ता-उक्त कार्य करा कर पच्चप्पिणंति-वे लोग राजा के पास आकर निवेदन करते हैं कि उक्त सब कार्य यथोचित रीति से हो गया है।
मूलार्थ-इसके अनन्तर वह श्रेणिक राजा उन पुरुषों से इस समाचार को सुनकर और विचार-पूर्वक हृदय में अवधारण कर हृदय में हर्षित और सन्तुष्ट हुआ और फिर सिंहासन से उठा, उठकर उसने वन्दना
और नमस्कार किया। तदनन्तर उन पुरुषों का सत्कार और सम्मान किया और फिर उनको जीवन-निर्वाह के योग्य प्रीति-दान देकर विदा किया। उनको विदा कर नगर-रक्षकों को बुलाया और उनसे कहा कि हे देवों के प्रियो ! राजगृह नगर को भीतर और बाहर अच्छी तरह से सींच कर और सम्मार्जित कर लिपवा डालो । इसके पश्चात् वे सब कार्य ठीक करा कर राजा से निवेदन करते हैं ।
टीका-इस सूत्र में प्रतिपादन किया गया है कि जब श्रेणिक राजा ने अध्यक्षों के मुख से श्री भगवान् महावीर स्वामी जी के आगमन का समाचार सुना तो शीघ्र ही राज-सिंहासन से उठ खड़ा हुआ। फिर पाद-पीठ द्वारा सिंहासन से नीचे उतरा ओर एक-शाटिका का उत्तरासन कर जल से मुखादि प्रक्षालन कर जिस ओर श्री भगवान् विराजमान थे उसी दिशा की ओर सात-आठ कदम गया और फिर विधि-पूर्वक उसने 'नमोत्थु णं' द्वारा सिद्धों और श्री भगवान् को नमस्कार किया तथा उनकी वन्दना की अपनी असीम भक्ति का परिचय दिया। इस के अनन्तर फिर राज-सिंहासन पर बैठकर उन पुरुषों का वस्त्रादि से सत्कार किया और प्रिय वचनों से उनको विशेष आदर किया। वह उनसे इतना प्रसन्न था कि केवल आदर से सत्कार से उसने उनको विदा नहीं किया, प्रत्युत आयु-पर्यन्त निर्वाह के योग्य धन देकर उनको सन्तुष्ट किया। यह प्रीति-दान अर्थात् (भगवतः प्रीत्या-रागेण दानम्) भगवान् के प्रति विशेष अनुराग होने से उनके आगमन के समाचार लाने वालों को प्रसन्नता से दान देकर उसने विदा किया। उनको विदा कर नगर के रक्षकों को बुलाया और उनको आज्ञा दी कि हे देवों के प्रियो ! आज तम लोग विशेष रूप से नगर के सम्पर्ण बाहर और भीतर के स्थानों को जल से
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