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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
किसी-२ लिखित प्रति में 'जिणपूयट्ठी' के स्थान पर 'जणपूयट्ठी पाठ मिलता है । उसका तात्पर्य यह है कि जनता में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए उक्त मिथ्या भाषण करता है । वह मूर्ख उक्त कर्म के साथ साथ 'दुर्लभ बोधादि' कर्मों की भी उपार्जना करता है, फलतः उसको अनियत समय तक संसार-चक्र में परिभ्रमण करना पड़ता है ।
इस प्रकार महा- मोहनीय कर्म के तीस स्थानों का वर्णन कर सूत्रकार अब तद्विषयक उपदेश का वर्णन करते हैं
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एते मोहगुणा वृत्ता कम्मंता चित्त-वद्वणा । जे तु भिक्खु. विवज्जेज्जा चरिज्जत्त - गवेसए || ते मोहगुणा उक्ताः कर्मान्ताश्चित्त-वर्द्धनाः । याँस्तु भिक्षुर्विवर्जेच्चरेदात्म- गवेषकः ।।
नवमी दशा
पदार्थान्वयः- एते-ये मोहगुणा - मोह से उत्पन्न होने वाले गुण (दोष) वृत्ता - कथन किये गये हैं । ये कम्मन्ता - अशुभ कर्म के फल देने वाले और चित्त-वद्धणा-चित्त की मलिनता को बढ़ाने वाले होते हैं जे-जिनको तु-निश्चय से भिक्खु - भिक्षु विवज्जेज्जा-छोड़ दे और वह अत्त-गवेसए - आत्मा की गवेषणा करने वाला चरिज्ज - सदाचार में प्रवृत्ति करे ।
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मूलार्थ - अशुभ कर्मों के फल देने वाले और चित्त की मलिनता को बढ़ाने वाले ये (पूर्वोक्त) मोह से उत्पन्न होने वाले गुण (दोष) कथन किये गये हैं । जो भिक्षु आत्मा की गवेषणा में लगा हुआ है वह इनको छोड़कर संयम क्रिया में प्रवृत्ति करे ।
टीका - इस सूत्र में आत्म- गवेषक भिक्षु को उपदेश दिया गया है । पूर्वोक्त तीस स्थान मोह कर्म के अथवा मोह शब्द से आठों कर्मों के उत्पन्न करने वाले कथन किये गये हैं । ये मोह के गुण अर्थात् अगुण हैं । क्योंकि प्राकृत भाषा होने से यहां 'गुणेहिं' साहु-अगुणेहिं साहु' के समान गुण के पूर्व के अकार का लोप हो गया है । इनका परिणाम आत्मा के लिए अशुभ होता है, अतः सूत्रकार ने 'कर्मान्ताः' पद दिया है । इसके
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