________________
नवमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
३२७
मूलार्थ-जो अपनी श्लाघा (प्रशंसा) के लिए अथवा दूसरों से मित्रता जोड़ने के लिए अधार्मिक वशीकरणादि योगों का बार-२ प्रयोग करता है वह महा-मोहनीय कर्म की उपार्जना करता है ।
टीका-इस सूत्र में अधार्मिक उपदेश और उसके प्रयोग के विषय में वर्णन किया गया है । जो कोई व्यक्ति अपनी श्लाघा अथवा मित्रता के लिए अधार्मिक-वशीकरणादि योगों का बार-बार उपदेश करता है अर्थात् तन्त्रशास्त्रानुसार वशीकरणादि मन्त्रों की विधि लोगों को सिखाता है, जिससे अनेक प्राणियों का उपमर्दन (शक्ति का नाश) हो जाता है तथा पांच 'आस्रवों' में प्रवृत्ति होने से बहुत से लोग धर्म से रुचि हटाकर अधर्म क्रियाओं में लग जाते हैं, वह महा-मोहनीय कर्म की उपार्जना कर लेता है । क्योंकि उसका आत्मा 'संवर' मार्ग से पृथक् होकर 'आस्रव' मार्ग में प्रवृत्ति करने लग जाता है । चाहे उक्त उपदेश करने वाला किसी कारण से भी उपदेश करे वह उक्त कर्म के बन्धन में अवश्य आ जायगा ।
अब सूत्रकार अट्ठाईसवें स्थान का वर्णन करते हुए कहते हैं :जे अ माणुस्सए भोए अदुवा पारलोइए । तेऽतिप्पयंतो आसयइ महामोहं पकुव्वइ ।।२८।। यश्च मानुषकान् भोगान् अथवा पार-लौकिकान् । (तेषु) तानतृप्यन्नास्वदते महामोहं प्रकुरुते ।।२८।।
पदार्थान्वयः-जे-जो कोई व्यक्ति माणुस्सए-मनुष्य-सम्बन्धी भोए-भोगों की अदुवा-अथवा पारलोइए-देव-सम्बन्धी काम-भोगों की ते-उन सब की अतिप्पयंतो-अतृप्त होता हुआ आसयइ-अभिलाषा करता है वह महामोहं-महा-मोहनीय कर्म की पकुव्वइ-उपार्जना करता है । ___ मूलार्थ-जो व्यक्ति मनुष्य अथवा देव सम्बन्धी काम-भोगों की अतृप्ति से अभिलाषा करता है, वह महा-मोहनीय कर्म की उपार्जना करता है ।
टीका-इस सूत्र में प्रतिपादन किया गया है कि अत्यन्त विषय-वासना का परिणाम अच्छा नहीं होता । जो व्यक्ति देव-सम्बन्धी तथा मानुष-सम्बन्धी और अन्य प्रकार के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org