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नवमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
पाने के लिए स्वयं भी रोगी बन जाता है उसका चित्त सदैव मलिन होता है । पाप सदैव उसके चित्त को घेरे रहता है । इन कार्यों से वह अपने लिए भवान्तर में अबोध-भाव के कारण एकत्रित करता है । क्योंकि संसार में धर्म-प्राप्ति केवल आर्जव (ऋजुता - साधारणता ) और मार्दव (दूसरों के प्रति अच्छे बर्ताव ) से ही होती है, न कि छल और कपट से । इस प्रकार छल करने से एक तो वह अपनी आत्मा के लिए अबोध - भाव एकत्रित करता है और दूसरे महा-मोहनीय कर्म के बन्धन में भी आ जाता है । इनके साथ ही साथ ग्लान की सेवा न करने से श्रीभगवान् की आज्ञा की विराधना भी करता है, क्योंकि भगवान् की आज्ञा है कि ग्लान की सेवा करना प्रत्येक का कर्त्तव्य होना चाहिए, जो करता है वह तीर्थङ्कर - गोत्र कर्म की उपार्जना करता है । अतः घृणा छोड़कर ग्लान (रोगी) की सेवा करनी चाहिए ।
अब सूत्रकार छब्बीसवें स्थान का विषय वर्णन करते हैं :
जे कहाहिगरणाई संपउंजे पुणो- पुणो । सव्व-तित्थाण-भेयाणं महामोहं पकुव्वइ ।।२६।।
यः कथाधिकरणानि संप्रयुङ्क्ते पुनः पुनः । (तानि चेत्) सर्वतीर्थ-भेदाय महामोहं प्रकुरुते
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।।२६।।
पदार्थान्वयः–जे—जो कोई कहाहिगरणाई - हिंसाकारी कथा का पुणो- पुणो- पुनः पुनः संपउंजे- प्रयोग करता है और वह कथा सव्व - सब तित्थाण - ज्ञानादि तीर्थों के भेयाणं भेद के लिए हो तो वह व्यक्ति महामोहं - महा- मोहनीय कर्म की पकुव्वइ - उपार्जना करता है ।
मूलार्थ - जो हिंसा युक्त कथा का बार-बार प्रयोग करता है और यदि वह कथा ज्ञानादि तीर्थों के भेद के लिए सिद्ध होती हो तो वह (कथा करने वाला) महा-मोहनीय कर्म की उपार्जना करता है |
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टीका - इस सूत्र में हिंसायुक्त कथा के विषय में कहा गया है । कौटिल्य अर्थशास्त्र तथा कामशास्त्र आदि में ऐसी गाथाएं हैं, जिनके सुनने से श्रोताओं की सहज ही में हिंसा और मैथुनादि कुकृत्यों में प्रवृत्ति होती है । जो ऐसी हिंसा - जनक और कामोद्वेजक कथाओं का बार- २ प्रयोग करता है, जिससे संसार-सागर को पार करने के सहायक - रूप ज्ञानादि मार्ग (तीर्थ) अथवा साधु प्रमुख चार तीर्थों का नाश होता हो, अथवा
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