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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
नवमी दशा
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कर्म नहीं करता और कहता है कि मज्झंपि-मेरी सेवा से-वह न कुव्वइ-नहीं करता अतः मैं उसकी सेवा क्यों करूं ।
मूलार्थ-जो कोई रोग आदि से घिरने पर, उपकार के लिए, शक्ति होने पर भी दूसरों की सेवा नहीं करता प्रत्युत कहता है कि इसने भी मेरी सेवा नहीं की थी (मैं इसकी सेवा क्यों करूं) ।
टीका-इस सूत्र में प्रतिपादन किया गया है कि आचार्य आदि गुरु-जनों के रोगादि से ग्रस्त होने पर केवल उपकार के लिए शिष्य को उनकी सेवा करनी चाहिए । यदि कोई समर्थ होने पर भी उनकी यथोचित सेवा नहीं करता किन्तु मन में सोचता है कि जब ये ही मेरा कोई कार्य नहीं करते अथवा जब मैं रुग्ण था तो इन्होंने भी मेरी किसी प्रकार सेवा नहीं की थी तो भला मुझे ही क्या पड़ी है कि मैं इनकी सेवा करूं इत्यादि सोचता हुआ न तो स्वयं सेवा करता है न दूसरों को ही सेवा करने का उपदेश देता है तथा केवल द्वेष के वशीभूत होकर ही उपकार करने में अपनी असमर्थता प्रकट करता है।
सढे नियडी-पण्णाणे कलुसाउल-चेयसे । अप्पणो य अबोहीए महामोहं पकुव्वइ ।।२५।। शठो निकृति-प्रज्ञानः कलुषाकुल-चेताः । आत्मनश्चाबोधिको महामोहं प्रकुरुते ।।२५।।
पदार्थान्वयः-सढे-धूर्त नियडी-छल करने मे पण्णाणे-निपुण कलु-साउल-चेयसे-पाप-पूर्ण चित्त वाला अप्पणो य-और अपने आत्मा के लिए अबोहीए-अबोध के भाव उत्पन्न करने वाला वह महामोह-महा-मोहनीय कर्म की पकुब्बइ-उपार्जना करता है ।। ___ मूलार्थ-वह धूर्त, छल करने में निपुण, कलुष चित्त वाला और अपने आत्मा के लिए अबोध-भाव उत्पन्न करने वाला महा-मोहनीय कर्म की उपार्जना करता है ।
टीका-इस सूत्र का पहले सूत्र से अन्वय है । अर्थात् समर्थ होने पर भी उपकार न करने वाला वह धूर्त है, छल करने में निपुण होता है और समय पर सेवा से छुटकारा ।
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