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नवमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
आए और दीनतापूर्वक कुछ कहे किन्तु वह तिरस्कार- पूर्ण तथा अनुचित और प्रतिकूल वचनों से उस (राजा) का तिरस्कार करे तथा उसके शब्दादि विशिष्ट भोगों का विनाश करे तो वह (मन्त्री) महा - मोहनीय कर्म के बन्धन में आ जाता है ।
यहां सामान्य रूप राजा और मन्त्री को उदाहरण रूप में रखकर उपर्युक्त कथन किया गया है । उपलक्षण से तत्सदृश अन्य श्रेष्ठी और उसके भृत्यों के विषय में भी जान लेना चाहिए । कहने का तात्पर्य यह है कि यदि कोई महा - पुरुष किसी अपने कर्मचारी के ऊपर विश्वास कर अपने सब अधिकार उसको दे दे और वह स्वामी से विश्वास - घात कर उसके सारे धन-धान्य पर अपना ही अधिकार कर उसको पद - च्युत कर दे और उसका तिरस्कार करे तथा लोगों की दृष्टि से उसको गिरा दे तो वह (कर्मचारी) महा- मोहनीय कर्म की उपार्जना करता है । विश्वास घात एक अत्यन्त भयंकर पाप है, अतः उक्त कर्म के बन्धन से बचने के इच्छुक को कदापि यह नहीं करना चाहिए । अब सूत्रकार ग्यारहवें स्थान के विषय में कहते हैं :
अकुमार-भूए जे केई कुमार-भूए ति हं वए । इत्थि-विसय-गेहिए महामोहं पकुव्वइ ।।११।। अकुमार-भूतो यः कश्चित्कुमार-भूतोऽहमिति वदेत् । स्त्री-विषय- गृद्धश्च महामोहं प्रकुरुते ।।११।।
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पदार्थान्वयः - जे- जो केई - कोई अकुमार-भूए- बाल ब्रह्मचारी नही है किन्तु हं-मैं कुमार-भूए- बाल - ब्रह्मचारी हूँ ति- इस प्रकार वए कहता है और इत्थि-विसय-गेहिएस्त्री-विषयक सुखों में लिप्त है वह महामोहं - महा- मोहनीय कर्म की पकुव्वइ - उपार्जना करता है ।
मूलार्थ - जो यथार्थ में ब्रह्मचारी नहीं किन्तु अपने आप को बाल ब्रह्मचारी कहता है और स्त्री-विषयक भोगों में लिप्त है वह महा- मोहनीय कर्म की उपार्जना करता है ।
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टीका - इस सूत्र में अब्रह्मचर्य से होने वाले महा- मोहनीय कर्म का विषय वर्णन किया गया है । जो कोई व्यक्ति बाल- ब्रह्मचारी नहीं किन्तु लोगों से कहता है कि मैं
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