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कर नवमी दशा
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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
(विघ्न) चेएइ-उत्पन्न करता है वह महामोह-महा-मोहनीय कर्म की पकुव्वइ-उपार्जना करता है ।
मूलार्थ-ईष्या-दोष से युक्त और पाप से मलिन चित्त वाला वह यदि अपने पालक और उपकारी के लाभ में विघ्न उपस्थित करे तो महा-मोहनीय कर्म की उपार्जना करता है ।
टीका-उसका चित्त अपने उपकारी, श्रेष्ठ पुरुष अथवा गांव की जनता से ईर्ष्या और द्वेष करने लगे, पाप से मलिन हो जाय और परिणाम में वह उनके लाभ में विघ्न उपस्थित करने लगे तथा लोभ में पड़कर उनको हानि पहुंचा कर उनके धन पर अपना अधिकार जमाना चाहे और उनसे दृढ़तर वैर बांध ले तो वह इस कृतघ्नता के फल-स्वरूप महा-मोहनीय कर्म के बन्धन में आ जाता है । यह पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि 'कृतघ्नता' नीच से नीच कर्म है । अतः सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि पहले तो हम उपकारी के उपकारों का बदला चुका सकें अन्यथा कम से कम उसको किसी प्रकार से हानि तो न पहुंचावें ।
अब सूत्रकार विश्वास-घात-विषयक पन्द्रहवें स्थान का विषय वर्णन करते हैं :सप्पी जहा अंडउड भत्तारं जो विहिंसइ । सेणावई पसत्थारं महामोहं पकुव्वइ ।।१५।। सर्पिणी यथाण्डकण्डं भर्तारं यो विहिंसति । सेनापतिं प्रशास्तारं महामोहं प्रकुरुते ।।१५।।
पदार्थान्वयः-जहा-जैसे सप्पी-सर्पिणी अंडउडं-अपने अण्डों के समूह को मारती है, उसी प्रकार जो-जो भत्तारं-पालन करने वाले को विहिंसइ-मारता है या सेणावई-सेनापति की तथा पसत्थारं-कलाचार्य या धर्माचार्य की हिंसा करता है वह महामोह-महा-मोहनीय कर्म की पकुव्वइ-उपार्जना करता है ।
मूलार्थ-जैसे सर्पिणी अपने अण्ड-समूह को मारती है ठीक उसी प्रकार जो पालनकर्ता, सेनापति, कलाचार्य या धर्माचार्य की हिंसा करता है वह महा-मोहनीय कर्म के बन्धन में आ जाता है ।
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