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नवमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
उपाध्याय अल्प- श्रुत हैं, अन्य तीर्थिक के संसर्ग से इनका दर्शन भी मलिन है, तथा चरित्र से भी ये पार्श्वस्थादि की संगति से दूषित ही हैं तो वह महा- मोहनीय कर्म के बन्धन में आ जाता है । अतः जिन उपाध्यायों तथा आचार्यों ने प्रेम-पूर्वक धर्म में शिक्षित किया उनके प्रति सदैव कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए न कि उद्दण्डता से उनकी निन्दा कर कृतघ्नता ।
अब सूत्रकार उक्त विषय में ही बाईसवें स्थान का वर्णन करते हैं :आयरिय-उवज्झायाणं सम्मं नो पडितप्पइ । अप्पडिपूयए थद्धे महामोहं पकुव्वइ ।। २२।।
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आचार्योपाध्यायान् सम्यग् नो परितर्पति ।
अप्रतिपूजकः स्तब्धो महामोहं प्रकुरुते ||२२||
पदार्थान्वयः - आयरिय- आचार्य उवज्झायाणं - और उपाध्याय की जो सम्मं अच्छी तरह नो पडितप्पइ-सेवा नहीं करता वह अप्पडिपूयए- अप्रतिपूजक है और थद्धे - अहंकारी है अतः महामोह - महा- मोहनीय कर्म की पकुव्वइ-उपार्जना करता है ।
मूलार्थ - आचार्य और उपाध्यायों की जो अच्छी प्रकार सेवा नहीं करता वह अप्रतिपूजक और अहंकारी होने से महा-मोहनीय कर्म की उपार्जना करता है ।
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टीका- इस सूत्र में भी कृतघ्नता के विषय में ही प्रतिपादन किया गया है । जो शिष्य आचार्य और उपाध्यायों शिक्षा प्राप्त कर दुःख के समय उनकी सेवा नहीं करता नांही उनकी पूजा करता है अर्थात् समय पर आहारादि द्वारा उनका आराधन और सम्मान नहीं करता, किन्तु स्वयं अहंकारी बनकर उनकी उपेक्षा करता है वह महा-मोहनीय कर्म के बन्धन में आजाता है । जिन गुरुओं से श्रुत आदि की शिक्षा मिलती है उनकी सेवा करना तथा उनके प्रति विनय प्रकट करना प्रत्येक शिष्य का कर्त्तव्य है । इससे ही उनकी शिक्षा सफल हो सकती है । जो उनके उपकार को भूलकर उनसे पराङ्मुख हो जाता है और विनय-धर्म को छोड़ कर अहंकारी बन जाता है उसका उक्त कर्म से छुटकारा नहीं हो सकता ।
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