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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
दूर करता है, उस मार्ग की निरन्तर निन्दा कर अपने और दूसरों के चित्त को उससे फेरता है, अपनी झूठी युक्तियों से न्याय संगत मार्ग को अन्याय - युक्त सिद्ध करता है और उसकी निन्दा करता है वह महा-मोहनीय कर्म की उपार्जना करता है ।
सूत्र में 'दुट्ठे' शब्द आया है । उसके 'दुष्ट' और 'द्वेषी' दो अर्थ हैं । 'अवयरई' क्रिया- पद के भी 'अपहरति' और 'अपकरोति' दो ही अर्थ हैं। यहां पर इसका अर्थ अपकार रूप ही लिया गया है अर्थात् जो न्याय - मार्ग पर चलते हुए व्यक्ति को उससे हटा कर उसका अपकार करता है । 'तिप्पयंतो' का अर्थ 'तर्पयन् अर्थात् निन्दा करता हुआ है, क्योंकि 'तिप्प (तृप् )' धातु निन्दार्थक भी है । 'भावयति' का अर्थ 'निन्दया द्वेषेण वा वासयति परमात्मानञ्च' है इत्यादि । शेष स्पष्ट ही है ।
अब सूत्रकार क्रमागत इक्कीसवें स्थान में आचार्य और उपाध्याय की निन्दा के विषय में निम्नलिखित सूत्र कहते हैं :
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आयरिय-उवज्झाएहिं सुयं विणयं च गाहिए । ते चेव खिंसइ बाले महामोहं पकुव्वइ ।।२१।।
नवमी दशा
आचार्योपाध्यायाभ्यां श्रुतं विनयञ्च ग्राहितः ।
तानेव खिंसति बालो महामोहं प्रकुरुते ||२१||
पदार्थान्वयः - आयरिय- आचार्य उवज्झाएहिं - और उपाध्याय जिन्होंने सुयं श्रुत च- और विणयं - विनय शिष्य को गाहिए-ग्रहण कराया है अर्थात् पढ़ाया है बाले-अज्ञानी च-यदि ते एव - उन्हीं की खिंसइ - निन्दा करता है तो महामोहं-महा- मोहनीय कर्म की पकुव्वइ - उपार्जना करता है ।
मूलार्थ - जिन आचार्य और उपाध्यायों की कृपा से श्रुत और विनय की शिक्षा प्राप्त हुई है यदि अज्ञानी उन्हीं की निन्दा करने लगे तो महा- मोहनीय कर्म की उपार्जना करता है ।
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टीका - इस सूत्र में आचार्यों और उपाध्यायों की निन्दा के विषय में कथन किया गया है । जिन आचार्यों और उपाध्यायों ने श्रुत और विनय धर्म की शिक्षा दी, यदि अज्ञानी शिष्य उन्हीं की निन्दा करता हुआ कहे कि ज्ञान की अपेक्षा से आचार्य या
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