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नवमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
अभाव से सर्वदर्शी कहे जाते हैं । इन महापुरुषों की निन्दा करने से आत्मा महा-मोहनीय कर्म की उपार्जना करता है । जो व्यक्ति ऐसा कहते हैं कि आज तक संसार में कोई सर्वज्ञ हुआ ही नहीं यह उनकी कपोलकल्पना मात्र है । वे लोग कहते हैं कि जितने भी सर्वज्ञ के लक्षण बताये गए हैं वे सब चण्डूखाने की गप्पें हैं क्योंकि आज तक कोई सर्वज्ञ दिखाई ही नहीं दिया तो फिर उसका लक्षण किस प्रकार हो सकता है । ज्ञेय अनन्त हैं एक व्यक्ति की बुद्धि में वे सब नहीं आ सकते अतः सर्वज्ञ कोई हो ही नहीं सकता । जितने भी शास्त्र हैं वे सब केवल बुद्धिमानों के वाग्-जाल रूप हैं । एक व्यक्ति एक ही समय में लोकालोक देख लेता है यह कदापि सम्भव नहीं क्योंकि इसमें कोई प्रमाण नहीं मिलता इत्यादि हेत्वाभास से सर्वज्ञ को न मानने वाले उक्त कर्म के बन्धन में फंस जाते हैं । हम सर्वज्ञ की सिद्धि पहली दशा के पहले सूत्र में चुके हैं ।
भली भांति कर
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अब सूत्रकार उक्त विषय में ही बीसवें स्थान का विषय वर्णन करते हैं नेयाइ ( उ ) अस्स मग्गस्स दुट्टे अवयरई बहुं । तं तिप्पयन्तो भावेइ महामोहं पकुव्वइ ।।२०।।
नैयायिकस्य मार्गस्य दुष्टोऽपकरोति बहु ।
तं तर्पयन् भावयति महामोहं प्रकुरुते ||२०||
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पदार्थान्वसः - नेयाइअस्स- न्याय - युक्त मग्गस्स मार्ग का दुट्ठे- दुष्ट अथवा द्वेषी बहु - अत्यन्त अवयरई - अपकार करता है और तं-उस मार्ग की तिप्पयन्तो निन्दा करता हुआ भावे - अपने आप को अथवा दूसरे व्यक्तियों को उस मार्ग से पृथक् करता है वह महामोहं - महा- मोहनीय कर्म की पकुव्वइ - उपार्जना करता है ।
मूलार्थ - जो दुष्ट आत्मा न्याय संगत मार्ग का अपकार करता है और उसकी निन्दा करता हुआ अपने और दूसरों की आत्मा को उससे पृथक् करता है वह महा-मोहनीय कर्म की उपार्जना करता है ।
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टीका - इस सूत्र में वर्णन किया गया है कि जो दुष्टात्मा या द्वेषी व्यक्ति सम्यग् दर्शनादि और मोक्ष का बुरी तरह से खण्डन कर भव्य आत्माओं को उनके परिणामों से
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