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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
नवमी दशा
राज्य-च्युत कर स्वयं उसके पद को प्राप्त कर उसकी रानियों और राज-लक्ष्मी का भोग करने लग जाता है और राजा को सब प्रकार से अनधिकरी बना डालता है वह (मन्त्री) महा-मोहनीय कर्म की उपार्जना करता है । हां, यदि राजा दुराचारी या अन्याय-शील हो और प्रजा के साथ 'सौदास' राजा के समान 'सिंह-हरिण' व्यवहार करता हो तो न्याय की दृष्टि से उस क्रूर राजा के हाथों से दीन प्रजा की रक्षा के लिए मन्त्री लोग यदि उसको पद-च्युत कर स्वयं शासन की बागडोर अपने हाथ में ले लें तो महा-मोहनीय के बन्धन में नहीं आते किन्तु ध्यान रहे कि इसमें स्वार्थ-बुद्धि बिलकुल न हो । यदि वे लोग स्वयं राज्योपभोग की इच्छा से निरपराध राजा को उक्त षड्यन्त्र से राज्यच्युत करेंगे तो वे किसी प्रकार से भी महा-मोहनीय कर्म के बन्धन से नहीं छूट सकते । सारांश यह निकला कि जो स्वार्थ-बुद्धि से राजा को राज्य-च्युत करता है वह उक्त कर्म के बन्धन में आता है और जो परोपकार या पत्ता-हित की दृष्टि से करता है वह नहीं आता।
अब सूत्रकार. इसी विषय से सम्बन्ध रखते हुए कहते हैं :उवगसंतंपि झंपित्ता पडिलोमाहिं वग्गुहिं । भोग-भोगे वियारेइ महामोहं पकुव्वइ ।।१०।। उपगच्छन्तमपि जल्पित्वा प्रतिलोमाभिर्वाग्भिः । भोग-भोगान् विदारयति महामोहं प्रकुरुते ।।१०।।
पदार्थान्वयः-उवगतंपि-सन्मुख आते हुए को भी झंपित्ता-अनिष्ट वचन कहकर तथा पडिलोमाहि-प्रतिकूल वग्गुहिं-वचनों से उसका तिरस्कार करता है और उसके भोग-भोगे-भोग्य भोगों का विदारेइ-विनाश करता है वह महामोह-महा-मोहनीय कर्म की पकुव्वइ-उपार्जना करता है ।
मूलार्थ-और जब वह सन्मुख आवे तो उसका अनिष्ट अथवा प्रतिकूल वचनों से तिरस्कार करता है और उसके शब्दादि भोगों का विनाश करता है वह महा-मोहनीय कर्म के बन्धन में आ जाता है |
टीका-इस सूत्र का अन्वय पहले सूत्र से ही है । जब मन्त्री राजा को पूर्वोक्त रीति क से राज्य-च्युत कर देता है फिर यदि वह राजा किसी कारण से उस (मन्त्री) के पास
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