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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
सप्तमी दशा
अब सूत्रकार क्रम-प्राप्त ग्यारहवीं प्रतिमा का विषय वर्णन करते हैं :
एवं अहोराइंदियावि । नवरं छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं बहिया गामस्स वा जाव रायहाणिस्स वा ईसिं दोवि पाए साह? वग्घारिय-पाणिस्स ठाणं ठाइत्तए सेसं तं चेव जाव अणुपालित्ता भवइ ।। ११ ।।
एवमहोरात्रिंदिवापि (भवति) । नवरं षष्ठेन भक्तेनापानकेन बहिर्गमस्य वा यावद् राजधान्या वेषद् द्वावपि पादौ संहृत्य प्रलम्बित-पाणेः स्थानं स्थातुम्, शेषं तच्चैव यावदनुपालिता भवति ।। ११ ।।
__ पदार्थान्वयः-एवं-इसी प्रकार अहोराइंदियावि-एक दिन और रात की प्रतिमा के विषय में भी जानना चाहिए किन्तु नवरं-इतना विशेष है कि छट्टेणं-षष्ठ भत्तेणं-भक्त के साथ अपाणएणं-पानी के बिना गामस्स-ग्राम के वा-अथवा जाव-यावत् रायहाणिस्स वा-राजधानी के बहिया–बाहर ईसिं-थोड़ा सा दोवि पाए-दोनों पैर साहटु-संकुचित कर और वग्घारिय-पाणिस्स-दोनों भुजाओं को लम्बी कर अर्थात् भुजाओं को जानु तक फैला कर ठाणं-कायोत्सर्ग ठाइत्तए-करना चाहिए । सेसं तं चेव-शेष पूर्ववत् ही जान लेना चाहिए जाव-यावत् अणु-पालित्ता-इस प्रतिमा का निरन्तर पालन करने वाला भवइ-होता है । ____ मूलार्थ-इसी प्रकार एक रात और दिन की प्रतिमा के विषय में भी जानना चाहिए । इसमें इतना विशेष है कि यह षष्ठ तप से की जाती है और तप कर्म बिना पानी के होता है । ग्राम या राजधानी के बाहर जाकर कुछ दोनों पैरों को संकुचित कर और भुजाओं को जानु पर्यन्त लम्बी कर कायोत्सर्ग करना चाहिए । शेष वर्णन पूर्ववत् है । इस प्रकार जितने भी नियम कहे गए हैं उनसे यह प्रतिमा पालन की जाती है ।
टीका-इस सूत्र में ग्यारहवीं प्रतिमा का विषय वर्णन किया गया है । यह प्रतिमा आठ प्रहर की होती है । इसकी विधि यह है कि इस में बिना पानी के दो उपवासों के साथ नगरादि से बाहर जाकर और दोनों पैरों को कुछ संकुचित कर जिन-मुद्रा के
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