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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
अहाकप्पं, अहामग्गं, अहातच्चं सम्मं कारण फासित्ता, पालित्ता, सोहित्ता, तीरित्ता, किट्टित्ता, आराहित्ता आणाए अणुपालित्ता यावि भवति ।। १२ ।।
सप्तमी दशा
एक-रात्रिकी भिक्षु-प्रतिमां सम्यगनुपालयतोऽनगारस्येमानि त्रीणि स्थानानि हिताय, शुभाय, क्षमायै, निःश्रेयसाय, अनुगामिकतायै भवन्ति । तद्यथा-अवधि-ज्ञानं वा तस्य समुत्पद्येत, मनः पर्यव-ज्ञानं वा तस्य समुत्पद्येत, केवल- ज्ञानं वा तस्यासमुत्पन्न - पूर्वं समुत्पद्येत । एवं खल्वेषैक-रात्रिकी भिक्षु - प्रतिमा यथासूत्रं यथाकल्पं, यथामार्ग, यथातत्त्वं सम्यक् कायेन स्पृष्टा, पालिता, शोधिता, तीर्णा, कीर्तिता, आराधिता ज्ञयानुपालिता चापि भवति ।।१२।।
पदार्थान्वयः - एग-राइयं - एक रात्रि की भिक्खु - पडिमं - भिक्षु - प्रतिमा को सम्मं अच्छी तरह अणुपालेमाणस्स - पालन करते हुए अणगारस्स - अनगार को इमे - ये वक्ष्यमाण तओ-तीन ठाणा - स्थान हियाए - हित के लिए सुहाए - सुख के लिए खमाए - शक्ति के लिए अणुगामियत्ता- भविष्य में सुख के लिए और निसेस्साए - कल्याण के लिए भवंति होते हैं, तं जहा-जैसे ओहि नाणे-अवधि- ज्ञान अथवा मनः पर्यवज्ञान से उसको समुपज्जेज्जा - उत्पन्न हो जाता है वा अथवा केवल नाणे - केवल - ज्ञान असमुप्पन्नपव्वे - जो पहले नहीं से-उसको समुपज्जेज्जा- - उत्पन्न हो जायगा एवं - इस प्रकार खलु - निश्चय से एसा-यह एग-राइया-एक रात्रि की भिक्खु-पडिमा - भिक्षु - प्रतिमा अहासुयं - सूत्रों के अनुसार अहाकप्पं- प्रतिमा के आचार के अनुसार अहामग्गं - प्रतिमा के ज्ञानादि मार्ग के अनुसार अहातच्च तत्त्व के अनुसार अथवा सम्मं - अच्छी तरह काएणं- शरीर से फासित्ता - स्पर्श करते हुए पालित्ता - पालन की हुई सोहित्ता - शोधन की हुई तीरिता - समाप्त की हुई किट्टिता - कीर्तन की हुई आराहित्ता - आराधन की हुई आणाए - आज्ञा से अणुपालित्ता यावि भवति - निरन्तर पालन की जाती है ।
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मूलार्थ - एक रात्रि की भिक्षु प्रतिमा का अच्छी तरह से पालन करते हुए मुनि को ये तीन स्थान हित, सुख शक्ति, मोक्ष और अनुगामिता के
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