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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
सप्तमी दशा
छोड़कर ध्येय-मय ही हो जायंगे और ध्याता को पूर्ण समाधि हो जायगी, क्योंकि जब तक ध्याता, ध्यान और ध्येय में पृथक्त्व-बुद्धि होगी तब तक एकचित्त न होने से कदापि समाधि प्राप्त नहीं हो सकती । जिस प्रकार अध्येता, अध्यापक और अध्ययन-इन तीनों में से अध्येता में ही सब कुछ आ जाता है अर्थात् अध्यापक से अध्ययन प्राप्त कर स्वयं अध्येता जिस प्रकार अध्यापक हो जाता है, इसी प्रकार ध्याता, ध्येय और ध्यान के विषय में भी जानना चाहिए । समाधि-युक्त आत्मा ध्याता, ध्येय और ध्यान-इन तीनों के पृथक्त्व को खो कर केवल ध्येय स्वरूप ही हो जाता है । मुनि को पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान से ही समाधि लगानी चाहिए ।
वक्ष्यमाण सूत्र में प्रतिपादन किया जाता है कि इस बारहवीं प्रतिमा के ठीक पालन न करने से कौन-२ दोष होते हैं :
एग-राइयं भिक्खु-पडिमं अणणुपालेमाणस्स अणगारस्स इमे तओ ठाणा अहियाए, असुभाए, अक्खमाए, अणिसेस्साए, अणाणुगामियत्ताए भवंति । तं जहा-उम्मायं वा लभेज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं वा पाउणेज्जा, केवलि-पण्णत्ताओ धम्माओ भंसिज्जा । ... एक-रात्रिकी भिक्षु-प्रतिमामननुपालयतोऽनगारस्येमानि त्रीणि ! स्थानान्यहिताय, अशुभाय, अक्षमायै, अनिःश्रेयसाय, अननुगामिकतायै भवन्ति । तद्यथा-उन्मादं वा लभेत, दीर्घकालिकं वा रोगान्तकं प्राप्नुयात् । केवलि-प्रज्ञप्ताद् धर्माद् वा भ्रस्येत् ।
पदार्थान्वयः-एग-राइयं-एक रात्रि की भिक्खु-पडिम-भिक्षु-प्रतिमा को अणणुपालेमाणस्स- ठीक प्रकार से पालन न करने वाले अणगारस्स-भिक्षु को इमे-ये तओ-तीन ठाणा-स्थान अहियाए-अहित के लिए असुभाए-अशुभ के लिए अक्खमाए-अक्षमा के लिए अणिसेस्साए-अकल्याण के लिए अणाणुगामियत्ताए-आगामी काल के सुख के लिए नहीं भवइ-होते हैं । तं जहा-जैसे-उम्मायं वा लभेज्जा-उन्माद की प्राप्ति करे
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