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सप्तमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
के अष्टम-भक्त का पालन करता है और ग्राम या राजधानी के बाहर जाकर शरीर को थोड़ा सा आगे की ओर झुका कर एक पुद्गल पर दृष्टि रखते हुए अनिमेष नेत्रों से, निश्चल अगों से, सब इन्द्रियों को गुप्त रखकर दोनों पैरों को संकुचित कर भुजाओं को लम्बी करके कायोत्सर्ग (ध्यान) करता है । उसको वहां पर देव, I मानुष और तिर्यग्योनि सम्बन्धी जितनी भी बाधाएं उत्पन्न हो जायं उनको सहन करना चाहिए । यदि उसको वहां मल-मूत्र की शङ्का उत्पन्न हो जाय तो उसको रोकना नहीं चाहिए, प्रत्युत किसी पूर्व अन्विष्ट (ढूंढ़े हुए) स्थान पर उनका त्याग कर फिर आसन पर आकर विधिपूर्वक कायोत्सर्गादि क्रियाओं में लग जाना उचित है ।
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टीका - इस सूत्र में बारहवीं प्रतिमा का विषय वर्णन किया गया है । यह प्रतिमा केवल एक रात्रि की होती है । इस प्रतिमा वाले भिक्षु को शरीर सम्बन्धी सब मोह त्याग देना चाहिए और जितने परीषह हैं उनको सहन करना चाहिए । फिर नगर या राजधानी के बाहर जाकर एक पुद्गल पर दृष्टि जमाकर शरीर को थोड़ा सा झुकाकर, दोनों पैरों को संकुचित कर, दोनों भुजाओं को जानु पर्य्यन्त लम्बी करके कायोत्सर्ग (ध्यान) करना चाहिए । उसको वहां देव, मानुष या तिर्यग्योनि सम्बन्धी जितने भी उपसर्ग उत्पन्न हों उनको सहन करना चाहिए । यदि उसको मल-मूत्र सम्बन्धी शङ्का उत्पन्न हो जाय तो उनका निरोध करना उचित नहीं । उसको चाहिए कि वह किसी पहले ढूंढ़े हुए स्थान पर उन (मल-मूत्र) का परित्याग कर फिर अपने स्थान पर आकर पूर्ववत् कायोत्सर्गादि क्रियाओं में दत्त-चित्त हो जाय । यदि मल-मूत्र का निरोध किया जायगा तो उससे अनेक रोग उत्पन्न हो जायेंगे । प्रतिमा को धारण करते हुए मुनि को उत्साह - युक्त होना चाहिए, क्योंकि उत्साह - युक्त व्यक्ति ही इसमें सफल हो सकता है, दूसरा नहीं ।
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एक पुद्गल पर दृष्टि लगाने से सूत्रकार का तात्पर्य यह है कि अनिमिष नयनों से अन्य सब ओर से दृष्टि हटाकर अभीष्ट पुद्गल पर - नासिका के अग्रभाग पर या पैरों के नखों पर दृष्टि जमाकर ध्यान में लगना चाहिए । इससे बाह्य दृष्टि का निरोध हो जायगा और अन्तर्दृष्टि भी ध्येय में लीन हो जायगी । इससे ध्याता और ध्यान अपनी सत्ता को
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