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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
सप्तमी दशा
एक-रात्रिकी भिक्षु-प्रतिमां प्रतिपन्नः (स्य) अनगारः (स्य) नित्यं व्युत्सृष्ट-कायः (स्य) यावदधिसहेत कल्पते स अष्टमेन भक्तेनापानकेन बहिग्रामस्य वा यावद् राजधान्या वा, ईषत्-प्राग्भार-गतेन कायेनैक-पुदगलस्थितया दृष्ट्या, अनिमिष-नयनाभ्याम, यथाप्रणिहितैर्गात्रैः, सर्वेन्द्रियैर्गप्तैः, द्वावपि पादौ संहृत्य प्रलम्बित-पाणेः स्थानं स्थातुम् । तत्र स दिव्यं मानुषं तिर्यग्यो-निकञ्च (उपसर्गम्) अधिसहते । तस्य नु तत्रोच्चार-प्रश्रवण उत्पद्येतां न स कल्पत उच्चारप्रश्रवणेऽवग्रहीतुम् । कल्पते स पूर्व-प्रतिलिखिते स्थण्डिले उच्चार-प्रश्रवणे परिष्ठापयितुम् । यथाविध्येव स्थानं स्थातुम् ।
पदार्थान्वयः-एग-राइयं-एक रात्रि की भिक्खु-पडिम-भिक्षु-प्रतिमा पडिवन्नस्स-प्रतिपन्न अणगारस्स-अनगार का निच्चं-नित्य वोसट्ठ-काए-शरीर व्युत्सृष्ट होता है । वह जाव-यावत् अहियासेइ-परीषहों को सहन करे । णं-वाक्यालङ्कारे से-वह अट्टमेणं भत्तेणं-अष्टम भक्त (तेले) के साथ अपाणएणं-पानी के बिना गामस्स-ग्राम के वा-अथवा रायहाणिस्स वा-राजधानी के बहिया-बाहर ईसिं-थोड़े से पड्भार-गएणं-नम्र कायेणं-शरीर से एग-पोग्गल-एक पुद्गल पर ठितीए-स्थित दिट्ठीए-दृष्टि से अणिमिस-नयणे-अनिमिष नयनों से अहापणि-हितेहि-यथा प्रणिहित गाएहि-गात्रों से सव्विंदिएहिं गुत्तेहिं-सब इन्द्रियों को गुप्त रखकर दोवि-दोनों पाए-पैरों को साहटु-संकुचित कर वग्घारिय-पाणिस्स-भुजाओं को लम्बी कर ठाणं ठाइत्तए-कायोत्सर्ग करना चाहिए । यदि से- उसको तत्थ-वहां दिव्वं -दे व सम्बन्धी माणुस्सं-मनुष्य सम्बन्धी तिरिक्खजोणिया-तिर्यग्योनि सम्बन्धी उपसर्ग उत्पन्न हो जायं तो जाव-जितने भी वे हों उनको अहिया-सेइ-सहन करे णं-वाक्यालङ्कारे । यदि से-उसको तत्थ-वहां उच्चार-पासवणं-मल-मूत्र को उगिण्हित्तए-रोकना णो कप्पइ-योग्य नहीं । किन्तु से-उसको पुव्व-पडिलेहियंसि-पूर्व प्रतिलिखित थंडिलंसि-स्थण्डिल पर उच्चार-पासवणं-मल-मूत्र का परिठवित्तए-उत्सर्ग करना कप्पइ-योग्य है । शौचादि से निवृत्त होकर फिर अहाविहिमेव-विधिपूर्वक ठाणं ठाइत्तए-कायोत्सर्ग करना चाहिए ।
मूलार्थ-एक रात्रि की भिक्षु-प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार को शरीर का मोह नहीं होता । वह सब परीषहों को सहन करता है । वह बिना पानी
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