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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
सप्तमी दशा
एवं द्वितीया सप्त-रात्रिंदिवा चापि । नवरं (इदं वैशेष्यं) दण्डायतिस्य वा लकुटशायिनो वा उत्कुटुकासनस्य वा स्थानं स्थातुम् । शेषं तच्चैव यावदनुपालिता भवति । एवं तृतीया सप्तरात्रिंदिवा चापि । नवरं गोदोहनिकासनिकस्य वा वीरासनस्य वा आम्र-कुब्जस्य वा स्थानं स्थातुम् । तच्चैव यावदनुपालिता भवति ।
पदार्थान्वयः-एवं-इसी प्रकार दोच्चा-द्वितीया सत्त-राइंदिया-सात रात दिन की प्रतिमा के विषय में यावि-भी जानना चाहिए नवरं-यह विशेषता सूचक अव्यय है अर्थात् विशेषता इतनी है कि इस प्रतिमा में दंडायइयस्स वा-दण्ड के समान लम्बा आसन करना चाहिए अथवा लगडसाइस्स-लकडी के समान आसन करना चाहिए अथवा उक्कुडुयस्स वा-उकडू आसन अर्थात् घुटनों के बल बैठने का आसन करना चाहिए और इन्हीं आसनों पर ठाणं-कायोत्सर्गादि ठाइत्तए-करना योग्य है । सेसं तं चेव-शेष बातें पूर्ववत् ही जान लेनी चाहिएं । जाव-इन सब बातों को अणुपालित्ता-पालन करने वाला भवइ-होता है । एवं-इसी प्रकार तच्चा-तृतीया सत्त-राइंदिया यावि-सात रात दिन की प्रतिमा भी भवइ-होती है । नवरं-विशेषता इतनी ही है कि गोदोहियाए-गोदोह नामक आसन से वीरासणियस्स वा-अथवा वीरासन से अथवा अंब-खुज्जस्स वा-आम्र-कुब्जासन से ठाणं-कायोत्सर्गादि ठाइत्तए-करने चाहिएं तं चेव-शेष पूर्ववत् ही जान लेना चाहिए इस प्रकार जाव-इन सब बातों का अणुपालित्ता-पालन करने वाला होता है ।
मूलार्थ-इसी प्रकार दूसरी सात दिन और रात की भिक्ष-प्रतिमा भी है | विशेषता केवल इतनी है कि इसमें दण्डासन, लगुडासन और उत्कुटुकासन पर ध्यान किया जाता है । शेष सब नियम पहले कही हुई प्रतिमाओं के समान जान लेने चाहिएं । उन सब नियमों के साथ ही इसका पालन किया जाता है । इसी प्रकार तीसरी सात रात और दिन की प्रतिमा के विषय में भी जानना चाहिए । इसमें यह विशेषता है कि कायोत्सर्गादि क्रियाएं गोदोहनिकासन, वीरासन और आम्र-कुब्जासन पर की जाती हैं । शेष सब पूर्ववत् ही है । इस प्रकार इसका निरन्तर पालन किया जाता है ।
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