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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
मूलार्थ-द्वि- मासिकी भिक्षु प्रतिमा प्रतिपन्न अनगार नित्य व्युत्सृष्टकाय होता है अर्थात् उसको शरीर का मोह नहीं होता और वह केवल दो दत्ति आहार की और दो दत्ति पानी की ग्रहण करता है । इसी प्रकार त्रि- मासिकी, चतुर्मासिकी, पञ्च मासिकी, षण्मासिकी और सप्त-मासिकी भिक्षु-प्रतिमाओं में मुनि क्रमशः तीन, चार, पांच, छः और सात दत्तियां ग्रहण कर सकता है । कहने का तात्पर्य यह है कि जितनीवीं मासिकी प्रतिमा हो उतनी ही दत्तियों की वृद्धि कर लेनी चाहिए ।
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सप्तमी दशा
टीका - इस सूत्र में दूसरी प्रतिमा से लेकर सातवीं प्रतिमा तक का वर्णन किया गया है । जब साधु दूसरी भिक्षु-प्रतिमा ग्रहण करे तो उसको दो दत्ति भोजन और दो दत्त पानी की ग्रहण करनी चाहिएं । किन्तु उसकी शेष वृत्ति पहली प्रतिमा के समान ही होनी उचित है । विशेषता केवल दत्तियों की ही है । इसी प्रकार सात प्रतिमाओं तक जान लेना चाहिए । अर्थात् तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी और सातवीं प्रतिमा में क्रम से तीन, चार, पांच, छः और सात दत्तियां अन्न और सात पानी की लेनी चाहिएं । कहने का आशय यह है कि जितनीवीं मासिकी प्रतिमा हो उतनी ही दत्ति भी ग्रहण करनी चाहिएं । प्रत्येक प्रतिमा एक - २ मास की होती है । केवल दत्तियों की वृद्धि के कारण ही द्वि- मासिकी त्रि-मासिकी आदि संख्या दी गई है । कहने का तात्पर्य यह है कि द्विमासिकी प्रतिमा का काल भी एक ही मास है । इसी प्रकार त्रिमासिकी आदि के विषय में भी जानना चाहिए । भेद केवल दत्तियों के कारण ही है । इस प्रकार इस सूत्र में सात दत्तियों का वर्णन किया गया है ।
अब सूत्रकार आठवीं प्रतिमा का विषय वर्णन करते हैं :
पढमा सत्त-राइंदिया भिक्खु-पडिमा पडिवन्नस्स अणगारस्स निच्च वोसट्टकाए जाव अहियासेइ । कप्पइ से चउत्थेणं भत्तेणं अप्पाणणं बहिया गामस्स वा जाव रायहाणिए वा, उत्ताणस्स पासिल्लगस्स वा नेसिज्जयस्स वा ठाणं ठाइत्तए । तत्थ दिव्वं माणुस्सं तिरिक्ख जोणिया उवसग्गा समुपज्जेज्जा तेणं उवसग्गा
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