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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
सप्तमी दशा
चञ्चलता के वशीभूत होकर स्थान का परिवर्तन करना उसको उचित नहीं । उसको चाहिए कि वह शान्तिपूर्वक शीत और उष्ण परीषहों को सहन करे । ऐसा करने से साधु के आत्म-बल की दृढ़ता सिद्ध होती है । मन और आसन की दृढ़ता प्रत्येक कार्य को सिद्ध कर सकती है । इस कथन से सब को शिक्षा लेनी चाहिए कि प्रत्येक कार्य की सिद्धि के लिए सबसे पहले मन और आसन की दृढ़ता होनी चाहिए ।
अब सूत्रकार पहली प्रतिमा का उपसंहार करते हुए कहते हैं :
एवं खलु मासियं भिक्खु-पडिमं अहासुत्तं, अहाकप्पं, अहामग्गं, अहातच्चं, सम्मं कारणं फासित्ता, पालित्ता, सोहित्ता, तीरित्ता, किट्टइत्ता, आराहित्ता, आणाए अणुपालिया भवइ ।।१।।
एवं खलु मासिकी भिक्षु-प्रतिमा यथासूत्रं, यथाकल्पं, यथामार्ग, यथातत्त्वं, सम्यक् कायेन स्पृष्ट्वा, पालित्वा, शोधित्वा, तीर्थ्या, कीर्तयित्वा, आराध्य, आज्ञयानुपालयिता भवति ।
पदार्थान्वयः-एवं-इस प्रकार खलु-अवधारण अर्थ में है मासियं-मासिकी भिक्खु-पडिम-भिक्षु-प्रतिमा का अहासुत्तं-सूत्रानुसार अहाकप्पं-कल्प (आचार) के अनुसार अहामग्गं-मार्ग के अनुसार अहातच्चं-तत्त्व के अनुसार अर्थात् याथातथ्य से सम्म-साम्य भाव से काएणं-काय से फासित्ता-स्पर्श कर पालित्ता-पालन कर सोहित्ता-अतिचारों से शुद्ध कर तीरित्ता-पूर्ण कर किट्टइत्ता-कीर्तन कर आराहित्ता-आराधन कर आणाए- आज्ञा से अणुपालित्ता-निरन्तर पालन करने वाला भवति-होता है । __ मूलार्थ-इस प्रकार मासिकी भिक्ष-प्रतिमा यथासूत्र, यथाकल्प, यथामार्ग, यथातत्त्व, सम्यक्तया कायद्वारा स्पर्श कर, पालन कर, अतिचारों से शुद्ध कर, समाप्त कर, कीर्तन कर, आराधन कर आज्ञा से निरन्तर समाप्त की जाती है ।
टीका-इस सूत्र में पहली प्रतिमा का उपसंहार किया गया है । सूत्रकार कहते हैं कि पहली मासिकी प्रतिमा का जिस प्रकार सूत्रों में वर्णन किया गया है, जिस प्रकार उसका आचार है, जिस प्रकार उसका मार्ग है अर्थात् जिस प्रकार ज्ञानादि मोक्ष मार्ग हैं,
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