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सप्तमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
२७५३
पयलिज्ज वा पवडेज्जा वा णो से कप्पइ पयलित्तए वा पयडित्तए वा । तत्थ णं उच्चार-पासवणं उब्बाहिज्जा णो से कप्पइ उच्चार-पासवणं उगिण्हित्तए वा । कप्पइ से पुव्व-पडिलेहियंसि थंडिलंसि उच्चार-पासवणं परिठवित्तए, अहाविहिमेव ठाणं ठाइत्तए । एवं खलु एसा पढमा सत्त-राइंदिया भिक्खु-पडिमा अहासुयं जाव आणाए अणुपालित्ता भवइ ||८||
प्रथमां सप्त-रात्रिंदिवां भिक्षु-प्रतिमा प्रतिपन्नः (स्य) अनगारस्य नित्यं व्युत्सृष्टकायः (स्य) यावदधिसहते । कल्पते स चतुर्थेन भक्तेनापानकेन बहिामस्य वा यावद्राजधान्या वा, उत्तानस्य, पाश्विकस्य, नैषधिकस्य वा स्थानं स्थातुम् । तत्र (यदि) दिव्या मानुषास्तिर्यग्योनिका वोपसर्गाः समुपपद्येरन्, ते उपसर्गाः प्रचालयेयुः प्रपातयेयुर्वा न स कल्पते प्रचलितुं प्रपतितुं वा । तत्र नूच्चार-प्रश्रवण उत्पद्येतां न स कल्पत उच्चारप्रश्रवणेऽवग्रहीतुं कल्पते स पूर्व-प्रतिलिखिते स्थण्डिल उच्चार-प्रश्रवणे परिस्थापयितुम् । (तदनु) यथाविध्येव स्थानं स्थातुम् । एवं खल्वेषा प्रथमा सप्त-रात्रिदिवा भिक्षु-प्रतिमा यथासूत्रं यावदाज्ञयानुपालिता भवति||८||
पदार्थान्वयः-पढमा-प्रथमा सत्त-सात राइंदिया-रात्रि और दिन की भिक्खु-पडिमाभिक्षु-प्रतिमा पडिवन्नस्स-प्रतिपन्न अणगारस्स-अनगार का निच्चं-नित्य वोसट्ठकाए-शरीर व्युत्सृष्ट होता है अर्थात् उसको शरीर का मोह नहीं होता । और जाव-जो कुछ नियम पहले कहे जा चुके हैं उनका पालन उसको करना होता है । अहियासेइ-वह परीषहों को सहन करता है । किन्तु से-उसको चउत्थेणं भत्तेणं-चतुर्थ भक्त नामक तप के द्वारा अप्पाणएणं-पानी के बिना (चौविहार प्रत्याख्यान) गामस्स-ग्राम के वा-अथवा जाव-यावत् रायहाणिए वा-राजधानी के बहिया–बाहिर उत्ताणस्स वा-लेटे हए आकाश की ओर मख कर पासिल्लगस्स वा-एक पार्श्व के आधार पर लेट कर अथवा नेसिज्जयस्स वा-निषद्य' आसन से बैठकर ठाणं-कायोत्सर्गादि ठाइत्तए-करना कप्पइ-योग्य है । तत्थ-वहां यदि
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