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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
सप्तमी दशा
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि सूत्रकार ने तीनों उपाश्रयों के साथ 'अधः' पद क्यों दिया है ? उत्तर में कहा जाता है कि यहां 'अधः' शब्द का अर्थ व्यापक है । वृत्तिकार ने इसका निम्नलिखित अर्थ किया है-"आरामस्याधो विभूषकं गृहम् अध-आरामगृहम् । अथवा अधः सर्वत आरामो यस्य तदध-आरामगृहम् तच्च तद् गृहं चेति कर्मधारये अध-आरामगृहम् । अथवाधो निवासाय, आरामे गृहम्-अध आरामगृहम् । अधो व्यापकं वा सर्वजन-साधारणमारामस्य गृहम् । तथाहि
अधः सुपरमे चैव वर्जने लक्षणादिषु । आलिङ्गने च शोके च पूजायां दोषकीर्तने ।। भूषणे सर्वतो भावे व्याप्तो निवसनेऽपि च ।
'अधे आराम-गिहंसि वेति पाठे 'आगमन-गृहम्', यत्र कर्पटिकादय आगत्य वसन्ति । सर्वतो विवृतं गृहम्, यदधः कुड्या भावादुपरि चाच्छादनाद्य-भावादनावृतम् । तथा वृक्ष-मूल-गृह-करीरादि-तरु-करीरादि-तरु-मूलमेव वृक्ष-मूल-गृहम् । तदेव साधुवर्जनीयदोषरहितं तत्र वसति । त्रयः प्रतिलेखितुं युज्यते नाधिकमित्यर्थः ।
सारी वृत्ति का तात्पर्य यह है कि जिस गृह के चारों ओर से आराम हो उसी को 'अध आराम-गृह' कहते हैं । जो आगन्तुकों के लिए चारों ओर से अनाच्छादित और ऊपर से आच्छादित हो उसी को 'अधो विकट-(विवृत) गृह' कहते हैं तथा वृक्ष के मूल में स्थिति करने के लिए ही 'वृक्ष-मूल-गृह' कहते हैं । सिद्ध यह हुआ कि मुनि को उक्त तीन प्रकार के गृहों की ही प्रतिलेखना करनी चाहिए ।
अब सूत्रकार पुनः उक्त विषय का ही वर्णन करते हैं :
मासियं णं भिक्खु-पडिमं पडिवन्नस्स कप्पति तओ उवस्सया अणुण्णवेत्तए, अहे आराम-गिहं, अहे वियड-गिहं, अहे रुक्ख-मूल-गिहं । मासियं णं भिक्खु-पडिमं पडिवन्नस्स कप्पति तओ उवस्सया उवाइणित्तए, तं चेव ।
मासिकी नु भिक्षु-प्रतिमां प्रतिपन्नः(स्य) कल्पते त्रीनुपाश्रयाननुज्ञापयितुम्, अध आराम-गृहम्, अधो विवृत-गृहम्, अधो वृक्ष-मूल-गृहम् । मासिकी नु
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