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सप्तमी दशा
हिन्दीभाषांटीकासहितम् ।
सचित्त होने के कारण इससे पृथिवी - काय की हिंसा होगी अतः अहाविहिमेव - विधि - पूर्वक ही ठाणं - स्थान में ठाइत्तए रहना उचित है अथवा निक्खमित्तए - वहां से निकल जाना चाहिए । यदि तत्थ - वहां उच्चार - पुरीष और पासवणेणं - प्रश्रवण (पेशाब) की उप्पाहिज्जा - शङ्का उत्पन्न हो जाय तो से उसको उगिण्हित्तए - उसका रोकना णो कप्पति - उचित नहीं किन्तु से उसको पुव्वपडिलेहिए- पूर्व प्रतिलेखित ( ढूँढ़े हुए) थंडिले - स्थण्डिल (पुरीषोत्सर्ग भूमि) में परिठवित्तए - परिष्ठापन करना कप्पति-योग्य है फिर तमेव-उसी उवस्सयं-उपाश्रय में आगम्म - आकर अहाविहि-विधि - पूर्वक ठाणं- स्थान में कायोत्सर्गादि करके ठवित्तए रहना चाहिए ।
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मूलार्थ - मासिकी भिक्षु प्रतिमा- प्रतिपन्न अनगार को सचित्त पृथिवी पर निद्रा या प्रचला नाम निद्रा लेना योग्य नहीं; क्योंकि केवली भगवान् इसको कर्म-बन्धन का कारण बताते हैं । वह कहते हैं कि भिक्षु वहां पर निद्रा या प्रचला नामक निद्रा लेता हुआ हाथों से भूमि का अवश्य स्पर्श करेगा और उससे हिंसा अवश्य ही होगी । अतः यथाविधि निर्दोष स्थान पर ही रहना चाहिए या वहां से अन्यत्र किसी स्थान को चल देना चाहिए । यदि वहां पर पुरीष या मूत्रोत्सर्गादि की शङ्का उत्पन्न हो जाय तो उसको उचित है कि किसी पूर्व प्रतिलेखित स्थान पर उनका उत्सर्ग करे और फिर उसी स्थान पर आकर कायोत्सर्गादि क्रिया करे ।
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टीका - इस सूत्र में बताया गया हे कि प्रतिमा - प्रतिपन्न अनगार को किन-२ स्थानों पर निद्रा लेनी चाहिए । उसको सचित्त पृथिवी पर लेट कर बैठे-२ या खड़े-२ निद्रा लेनी सर्वथा अनुचित है । क्योंकि केवली भगवान् कहते हैं कि ऐसा करने से कर्मों का बन्धन अवश्यमेव हो जायगा या होता है । जब वह ऐसे स्थान पर निद्रा या प्रचला नाम निद्रा लेगा तो उसके हाथों से भूमि का स्पर्श होगा ही और उससे जीव - विराधना होना अनिवार्य है । अतः उसको योग्य है कि यथाविधि किसी निर्दोष स्थान पर कायोत्सर्गादि क्रियाएं करे । यदि उसको वहां पर मल-मूत्रादि की शङ्का उत्पन्न हो जाय तो उसे उसको रोकना नहीं चाहिए, किन्तु पहले से ही ढूँढ़ कर निश्चित किये हुए स्थण्डिल ( मल त्याग - भूमि) पर उनका यथाविधि त्याग करना चाहिए । तदनन्तर उपाश्रय में आकर कायोत्सर्गादि क्रियाएं करनी चाहिएं ।
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