________________
२६४
दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
सप्तमी दशा
दोषापत्ति नहीं होती; क्योंकि 'नैगम' नय के भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीन भेद होते हैं । जैसे-इस घट में घृत था, इसमें घृत होगा और अमुक कार्य हो रहा है । अतः इस सूत्र का कथन 'नैगम' नय के ही अनुसार किया गया है यह सर्वथा युक्ति-युक्त प्रतीत होता
सूत्रकार वक्ष्यमाण सूत्र में भी पूर्वोक्त विषय ही कहते हैं :
मासियं भिक्खु-पडिमं पडिवन्नस्स णो से कप्पइ अणंतरहियाए पुढवीए निद्दाइत्तए वा पयलाइत्तए वा । केवली बूया आदाणमेयं । से तत्थ निद्दायमाणे वा पयलायमाणे वा हत्थेहिं भूमिं परामुसेज्जा । अहाविधिमेव ठाणं ठाइत्तए निक्खमित्तए । उच्चार-पासवणेणं. उप्पाइज्जा नो से कप्पति उगिण्हित्तए वा । कप्पति से पुव्व-पडिलेहिए थंडिले उच्चार-पासवणं परिठवित्तए । तम्मेव : उवस्सयं आगम्म अहाविहि ठाणं ठवित्तए ।
__ मासिकी भिक्षु-प्रतिमां प्रतिपन्नः(स्य) नो से कल्पतेऽनन्तरहितायां पृथिव्यां । निद्रातुं प्रचलायितुं वा । केवली ब्रूयात (अवोचत्) आदानमेतत् । स तत्र निद्रायमाणो वा प्रचलायमाणो वा हस्ताभ्यां भूमिं परामृषेत् । यथाविधिमेव स्थाने स्थातुं निष्क्रान्तुम् । उच्चार-प्रश्रवणे (चेत्) उत्पद्येतां नैव स कल्पतेऽवग्रहीतुं वा । कल्पते स पूर्व-प्रतिलिखिते स्थण्डिले उच्चार-प्रश्रवणे परिस्थापयितुम् । तमेवोपाश्रयमागत्य यथाविधि स्थाने स्थातुम् ।
पदार्थान्वयः-मासियं-मासिकी भिक्खु-पडिमं पडिवनस्स-भिक्षु-प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार को अणंतरहियाए-सचित्त पुढवीए-पृथिवी पर निद्दाइत्तए वा-निद्रा लेनी अथवा पयलाइत्तए-प्रचला नाम की निद्रा लेनी णो कप्पइ-उचित नहीं है । क्योंकि केवली बूया-केवली भगवान् कहते हैं आदाणमेयं-ये क्रियाएं बन्धन कारक हैं । से-वह तत्थ-वहां निद्दायमाणे वा-निद्रा लेता हुआ अथवा पयलायमाणे वा-प्रचला नाम की निद्रा लेता हुआ हत्थेहिं-हाथों से भूमि-भूमि का परामुसेज्जा-परामृष करे तो पृथिवी के
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org